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आदमी बिना जाने, आत्मा अमर है, ऐसी निस्संदिग्ध स्थिति को उपलब्ध नहीं होता है, ऐसी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होता है। जब तक जान न ले तो ऊपर से थोपता रहे कि आत्मा अमर है, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। भीतर वह जानता है कि मैं मरूंगा।
शरीर मरणधर्मा है, यह जरूर सत्य है। यह सारी मनुष्य-जाति का, यह सारे जीवन का अनुभूत सत्य है। इसके लिए किसी पर विश्वास करने की कोई भी जरूरत नहीं है। यह शरीर मर ही रहा है। यह शरीर बच्चा था, यह जवान हो गया, यह बूढ़ा हो रहा है, यह मर ही रहा है। यह एक-एक कदम मौत के ही उठा रहा है। यह जन्मने के बाद मरने के अतिरिक्त दूसरा काम ही नहीं कर रहा है। यह मरता ही चला जा रहा है। जिसे हम शरीर की जिंदगी कहते हैं, वह धीरे-धीरे क्रमशः मरने की स्थिति है, वह ग्रेजुअल डेथ-प्रोसेस...वह मरता जा रहा है।
लोग गलत कहते हैं कि आदमी सत्तर साल में मर गया। सत्तर साल में मरने की क्रिया सिर्फ पूरी होती है। उस क्षण कोई मरता नहीं है। मरता ही रहता है, मरने का काम चलता रहता है, लेकिन हम तो आखिरी हिस्से देखते हैं। हम कहते हैं कि सौ डिग्री पर पानी भाप बन गया। जैसे सौ डिग्री पर पानी भाप बनता है लेकिन एक डिग्री पर, दो डिग्री पर, वह भाप बनने की तैयारी करता रहता है और गर्म होता रहता है, निन्यानबे डिग्री पर वह पूरा तैयार होता है, सौ डिग्री पर छलांग लगा जाता है-हम जिंदगी भर मरने की तैयारी करते हैं। जिसे हम जिंदगी कहते हैं वह सिर्फ मरने का उपक्रम है। शरीर की तरफ यह स्मरण गहरा हो जाये, तो शरीर से पकड़ छूटनी आसान हो जाती है।
स्मरण रखें कि जिसे आपने समझा है कि मैं हूं और जब दर्पण के सामने खड़े हों तो देखें कि सामने मौत खड़ी है, आप नहीं खड़े हैं। लेकिन चेहरा आपको अपना दिखाई पड़ रहा है, यह मौत का चेहरा दिखाई नहीं पड़ रहा है। हालांकि जिस जमीन पर आप बैठे हैं, उसमें ऐसा मिट्टी का एक कण भी नहीं है जो कभी न कभी किसी आदमी को अपना चेहरा होने का भ्रम नहीं दे चुका है। जिस जगह आप बैठे हैं वहां कम से कम दस आदमियों की कब्र बन चुकी है। जमीन पर एक इंच जमीन नहीं है जहां कम से कम दस आदमियों की राख न मिल चुकी हो। आदमियों की कह रहा हूं, पशु-पक्षियों का हिसाब लगाना तो मुश्किल है, कीड़े-मकोड़ों का हिसाब लगाना तो मुश्किल है, पौधों का हिसाब लगाना तो मुश्किल है। वे भी जीये हैं। जिस जगह आप बैठे हैं वहां न मालूम कितने वे ही लोग भ्रमपूर्वक जीये हैं, जिन्होंने दर्पण में समझा है कि जिसे मैं देख रहा हूं यह मैं हूं, आज वे सिर्फ राख में पड़े हैं। आपके और उनके राख में पड़ जाने में सिर्फ टाइम गैप का फर्क पड़ेगा, थोड़े से वक्त की देर है, आप भी उसी क्यू में खड़े हैं जिसमें वे आगे खड़े थे। थोड़ी देर में क्यू वहां पहुंच जायेगा।
और क्यू पूरे वक्त बढ़ रहा है। जब एक आदमी मरता है तो क्यू में थोड़ी जगह आगे सरक गयी। लेकिन आप बडी उत्सकता से आगे बढ़ते हैं कि जगह खाली हई, आगे बढ़ने का मौका मिला। जगह खाली नहीं हुई, मौत ने एक कदम और आपकी तरफ बढ़ाया है या आप एक कदम और मौत की तरफ बढ़ गये हैं।
अप्रमाद (प्रश्नोत्तर) 287
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