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________________ दोहराये चले जाते हैं, कल की आशाओं को भीतर बांधे चले जाते हैं, भविष्य के सुखों को चाहते चले जाते हैं। और इसलिए वह मृत्यु फिर नया जन्म बन जाती है। और फिर वही चक्कर जो हमने पीछे पूरा किया था, फिर शुरू हो जाता है। ____ महावीर और बुद्ध ने एक अदभुत, अनूठा प्रयोग किया था। और वह प्रयोग था कि जब भी कोई साधक आता तो वे उससे कहते कि पहले तुम अपने पिछले जन्मों के स्मरण में उतरो। उस स्मरण को महावीर 'जाति-स्मरण' कहते थे। उसे ध्यान में उतारते कि पहले तुम अपने पिछले जन्म जान लो। नये साधक आते और कहते कि पिछले जन्म से हमें कोई प्रयोजन नहीं, हम शांत होना चाहते हैं, हम आत्मा को जानना चाहते हैं, हम मोक्ष पाना चाहते हैं। तो महावीर कहते कि वह तुम न पा सकोगे, न जान सकोगे। पहले तुम अपने पिछले जन्म को देख लो। उनकी समझ में भी नहीं आता कि पिछले जन्म देखने से क्या होगा। लेकिन महावीर कहते कि पिछले जन्म के स्मरण दो-चार तुम कर ही लो। और उन्हें पिछले जन्मों की प्रक्रिया से गुजारते। वर्ष लगता, दो वर्ष लगता और व्यक्ति पिछले जन्मों की स्मति ले आता और फिर महावीर पूछते, अब क्या खयाल है? तो वह आदमी कहता, धन मैं बहुत बार पा चुका और फिर भी कुछ नहीं पाया। प्रेम मैं बहुत बार पा चुका, फिर भी खाली हाथ रहा। यश के सिंहासन पर और भी कई जन्मों में पहुंच चुका, पर मौत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिला। तो महावीर कहते, अब ठीक है। अब इस जन्म में तो यश पाने का खयाल नहीं है? पिछला जन्म हमें भूल जाता है। इसलिए जो हमने कल किया था, उसे ही हम आज किये चले जाते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। आदमी इतना अदभुत है, इतना एब्सर्ड है। ऐसा नहीं है कि यदि पिछले जन्म याद हों, फिर भी जरूरी नहीं कि हम बदल जायें। आपको अच्छी तरह मालूम है कि कल आपने क्रोध किया था, अच्छी तरह याद है। और क्या पाया था, वह भी याद है। आज फिर क्रोध किया है, कल भी आप क्रोध करेंगे। इसकी ही संभावना ज्यादा है। कल भी सुख चाहा था, और मिला क्या? अच्छी तरह याद है। लेकिन आज फिर उसी तरह सुख चाहेंगे। कल भी उसी तरह चाहेंगे। रोज सुख चाहेंगे, रोज दुख मिलेगा। फिर भी आदमी को अपने को धोखा देने की सामर्थ्य अनंत मालूम पड़ती है। रोज कांटे चुभते हैं, फूल कभी हाथ लगते नहीं, लेकिन फिर भी फूलों की खोज जारी हो जाती है। आदमी को देखकर ऐसा लगता है कि आदमी शायद सोचता ही नहीं है। शायद सोचने से डरता है कि कहीं ऐसा न हो कि जैसे बच्चे तितलियों के पीछे दौड़ रहे हैं, वैसे ही कहीं मैं भी सुख की तितलियों के पीछे दौड़ना बंद न कर दूं! शायद घबड़ाता है कि रुकू तो वह कहीं दौड़ छूट न जाये। शायद डरता है कि कहीं जिंदगी को देख लूं तो कहीं बदलाहट न करनी पड़े। लेकिन जिन्हें साधना के जगत में उतरना है, अप्रमाद में, जागरण में, चेतना में, उन्हें स्मरणपूर्वक पहले सूत्र को चौबीस घंटे खयाल में रखना जरूरी है। उठे सुबह, तो स्मरणपूर्वक ध्यान करें कि कल भी उठे थे, परसों भी उठे थे, पचास वर्ष हो गए हैं उठते हुए। क्या अप्रमाद (प्रश्नोत्तर) 285 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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