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कि सब ठीक है। जहां कुछ भी ठीक नहीं है, जहां पैरों के नीचे से रोज जमीन खिसकती चली जाती है, और जहां हाथ में जीवन की रेत रोज कम होती चली जाती है, और जहां सिवाय मृत्यु के और कुछ पास आता नहीं मालूम होता है...।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे कि जिंदगी को देखना है तो जाकर मरघट पर देखो। लेकिन हम अगर मरघट पर भी जाते हैं तो वह जो मर गया है, उसकी मृत्यु की चर्चा में समय को झुठला देते हैं। उसकी मृत्यु की चर्चा में यह कहते लौटते हैं कि उस बेचारे के साथ अनहोनी घट गई है, बिना इसकी चिंता किये कि हर मृत्यु की खबर, हमारी मृत्यु की खबर है। हर मृत्यु की घटना, हमारी मृत्यु की पूर्व सूचना है। हर मृत्यु मेरी ही मृत्यु है। ___अगर हम जीवन को उसके इस वास्तविक रूप में देख पायें तो उस पर पकड़ कम हो जाती है। लेकिन हमने मरघट गांव के बाहर बनाए हैं, जानकर कि वह हमें दिखाई न पड़े। हम मरघट सुंदर बनाने में लगे हैं, कि हम मरघट के फूलों में मौत को छिपा दें। हम जिंदगी के इस पूरे भवन को एक प्रवंचना, एक डिसेप्शन की भांति खड़ा करते हैं। __भीतर जिसे जाना है, अचेतन में जिसे उतरना है, गहराइयां जिसे छूनी हैं, उसे बाहर की पकड़ को शिथिल करना पड़ेगा। वह पकड़ तभी शिथिल हो सकती है जब हम देखें कि क्या है। ____ तो पहली बात ध्यान में रखें कि इस जगत में जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा नहीं है। हमने कितनी बार सुख चाहा है और कितनी बार सुख पाया है? नहीं, हम गणित करने नहीं बैठते हैं। दिन में आदमी कितना कमाता है, कितना गंवाता है, सांझ इसका सब हिसाब कर लेता है। लेकिन जिंदगी में कितना हम कमाते हैं और गंवाते हैं, उसका हम किसी सांझ कोई हिसाब नहीं करते। और आज सोते वक्त पांच मिनिट सोच लेना जरूरी है कि दिन भर में कितना सुख पाया है! और कल जितने सुख सोचे थे कि आज मिलेंगे, उनमें कितने मिल गये हैं! और कल जिन दुखों को कभी नहीं सोचा था कि मिलेंगे, आज उनमें से कितने अचानक घर में मेहमान हो गये हैं। ____ काश, हम थोड़े दिनों तक सांझ को इसे सोचते रहें, तो कल के लिए सुख की आशा बांधनी बहुत मुश्किल हो जाएगी। और जब आदमी में सुख की आशा बंधनी एकदम असंभव हो जाती है तब उस व्यक्ति की अंतर-यात्रा शुरू होती है। उस व्यक्ति की अंतर-यात्रा कभी शुरू नहीं होती जिसे सुख की आशा बाहर बनी रहती है। सुख बाहर है तो व्यक्ति कभी गहराई में नहीं उतर सकता है। सुख बाहर नहीं है, तो सिवा भीतर की गहराई में उतरने के और कोई उपाय नहीं रह जाता।
इसलिए पहली बात, जीवन एक धोखा है, जिसे हम देखते हैं और जानते हैं वह जीवन। जिसे हमने जीवन समझा है, वह एक डिसेप्शन है। लेकिन यह डिसेप्शन, यह धोखा जब टूटता है तब उसका कोई प्रयोग, उपयोग नहीं किया जा सकता है। मौत के आखिरी क्षण में टूटता है, लेकिन तब करने को कुछ भी नहीं बच रहता है। और तब भी मुश्किल है कि टूटता हो। अक्सर तो ऐसा होता है कि मृत्यु के आखिरी क्षण में भी हम उन्हीं कामनाओं को भीतर
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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