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बच्चा रोता है जब पैदा होता है, और हम सब बैंड-बाजे बजाकर हंसते हैं, और प्रसन्न होते हैं। कहते हैं, सिर्फ एक बार भूल-चूक हुई है इस जगत में, सिर्फ एक बार ऐसा हुआ कि एक बच्चा जरथुस्त्र पैदा होते वक्त हंसा था। अब तक कोई बच्चा पैदा होते वक्त हंसा नहीं है। और तब से हजारों लोगों ने पूछा है कि जरथुस्त्र पैदा होते वक्त क्यों हंसा ? अब तक कोई उत्तर भी नहीं दिया गया है। लेकिन मुझे लगता है जरथुस्त्र हंसा होगा उन लोगों को देखकर जो बैंड-बाजे बजाते थे और खुश हो रहे थे। क्योंकि हर जन्म मृत्यु की खबर है। हंसा होगा जरथुस्त्र जरूर! वह उन लोगों पर हंस रहा था, जो सांप को रस्सी समझकर पकड़ रहे थे। वह उन लोगों पर हंसा होगा, जो जिंदगी को उसके चेहरे से पहचानते हैं और उसकी आत्मा से नहीं पहचानते ।
हम भी जिंदगी को उसके चेहरों से ही पहचान कर जीते हैं। ऐसा नहीं है कि जिंदगी की आत्मा बहुत बार दिखाई नहीं पड़ती। हमारे न चाहते हुए भी जिंदगी बहुत बार अपना दर्शन देती है, लेकिन तब हम आंख बंद कर लेते हैं । जब भी जिंदगी प्रगट होना चाहती है, तभी हम आंखें बंद कर लेते हैं।
मेरे एक वृद्ध मित्र हैं। उनका पुत्र मर गया तो वे रोते थे छाती पीटकर । मैं उनके घर गया था। वे कहने लगे, यह कैसे हो गया कि मेरा जवान लड़का मर गया! मैंने उनसे कहा कि ऐसा मत पूछें। ऐसा पूछें कि यह कैसे हुआ कि आप अस्सी साल के हो गए हैं और अभी तक नहीं मरे हैं। यहां जवान का मरना आश्चर्य नहीं है। यहां मृत्यु आश्चर्य नहीं होनी चाहिये । क्योंकि मृत्यु ही अकेली सटेंटी है। और सब आश्चर्य हो सकता है, पर मृत्यु एकमात्र निश्चय है, जिसके संबंध में आश्चर्य की कोई भी जरूरत नहीं है।
लेकिन मृत्यु हमें सबसे ज्यादा आश्चर्य दिखती है। इस जगत में सब-कुछ अनिश्चित है, मृत्यु भर निश्चित है। सब-कुछ हो रहा है, सब-कुछ हो सकता है, सब-कुछ बदल जाता बस वह एक मृत्यु ध्रुवतारे की तरह बीच में खड़ी रहती है। लेकिन उसको हम बहुत आश्चर्य से लेते हैं। और जब हम सुनते हैं कि कोई मर गया तो ऐसे लगता है कि कोई बहुत बड़ी आश्चर्य की घटना घट गयी, कुछ अनहोनी घट गयी है। लोग कहते हैं, मृत्यु अनहोनी है। नहीं होनी चाहिए थी, ऐसी है । पर सच यह है कि मृत्यु की होनी भर निश्चित है, बाकी सब अनहोनी है। बाकी न हो तो हम कहीं भी पूछने न जा सकेंगे कि क्यों नहीं हुआ। अगर मृत्यु न हो तो सारे जगत को आश्चर्य से भर जाना चाहिए। लेकिन निश्चित को हम झुठलाये हुए हैं। जीवन में हम सभी सत्यों को झुठलाये हुए हैं।
जीवन अनिश्चित है। जीवन की सारी की सारी व्यवस्था असुरक्षा है, इनसिक्योरिटी है। लेकिन हम बड़े सिक्योर जीये चले जाते हैं। हम ऐसे जीते हैं कि सब ठीक है। लेकिन हमारा वह सब ठीक वैसा ही है जैसे सुबह कोई मिलता है और आपसे पूछता है, कैसे हैं ? और आप कहते हैं, सब ठीक है । सब कभी भी ठीक नहीं है। कुछ भी ठीक हो, यह भी संदिग्ध है । सब सदा गैर- ठीक है ।
लेकिन आदमी का मन अपने को धोखा दिये चला जाता है । और कहे चला जाता है।
अप्रमाद (प्रश्नोत्तर)
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