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________________ इसलिये बुद्ध ने निर्वाण के दो रूप कहे हैं। बुद्ध ने कहा है कि जब मुझे ज्ञान मिला बोधि वृक्ष के नीचे, तो वह निर्वाण था। लेकिन अभी महानिर्वाण होने को है। महानिर्वाण उस दिन होगा, जिस दिन मेरी आखिरी श्वास छूटेगी। ज्ञान होना और आखिरी श्वास छूटने के बीच चालीस साल का फासला है। महावीर के लिए चालीस-बयालीस साल का फासला है। इन बयालीस वर्षों के पहले भी हिंसा थी, ज्ञान की घटना के बाद भी हिंसा है। लेकिन दृष्टिकोण में फर्क पड़ गया। पहले जो हिंसा थी, अनजानी थी, अब जान कर है। पहले जो हिंसा थी, वह मूर्च्छित थी, अब होशपूर्वक है, इसलिए कम से कम है। __महावीर अपनी तरफ से अब हिंसा नहीं कर रहे हैं। जितनी हिंसा मात्र जीवित होने से होती है, उतनी हो रही है। उसमें भी जितनी न्यनता वे ला सकते हैं, लाते हैं। सोयेंगे तो ही, तो एक करवट सो सकते हैं तो वे एक ही करवट सोते हैं। भोजन तो करेंगे ही। अगर एक ही बार कर सकते हैं तो एक ही बार कर लेते हैं। अगर दो दिन में एक बार तो फिर दो दिन में एक बार कर लेते हैं। भोजन तो करना ही पड़ेगा। मांस नहीं लेते हैं। सब्जी ही ले लेते हैं। सब्जी भी, अगर सूखी हुई मिल जाए, फल भी सूखा हुआ ले लेते हैं बजाय हरे के लेने के। क्योंकि हरे को तोड़ना पड़ेगा तो कहीं तो पीड़ा होगी। सूखा अपने से गिर गया है। लेकिन सूखे के भीतर भी अनेक जीवन हैं, उनकी तो हिंसा होगी ही। ___ महावीर ज्ञान के बाद जिस हिंसा से गुजरे हैं, वह मजबूरी है। उस हिंसा में महावीर को कोई रस नहीं है, मजबूरी है। आखिरी श्वास के साथ वह मजबूरी भी टूट जाएगी। आखिरी श्वास के साथ परम निर्वाण होगा। फिर वह यात्रा और होगी। तब बिना शरीर का जीवन होगा। तब शुद्ध आत्मा का जीवन होगा। शुद्ध आत्मा का जीवन ही पूर्ण अहिंसा का जीवन हो सकता है। इस पृथ्वी पर सभी चीजें अशुद्ध होंगी। अशुद्धि कम-ज्यादा हो सकती है। इस पृथ्वी पर एब्सोल्यूट कुछ भी नहीं होता, पूर्ण कुछ भी नहीं होता। इस पृथ्वी पर जिसको हम पूर्णतम कहते हैं, उसमें भी थोड़ी-सी न्यूनता शेष रह जाती है। इस पृथ्वी पर राम, कितने ही बड़े राम हो जायें, थोड़ा-सा रावण उनके भीतर शेष रह ही जाता है। और इस पृथ्वी पर रावण कितना ही बड़ा रावण हो जाये, उसके भीतर भी थोड़ा-सा राम सदा मौजूद रहता है। असल में रावण के भीतर थोड़ा-सा राम ही उसके विकास की संभावना है। और राम के भीतर थोड़ा-सा रावण ही उनके जन्म की संभावना है। राम के भीतर वह जो थोड़ा सा रावण है, वही उनके जीवन का आधार है। और रावण के भीतर वह थोड़ा सा जो राम है, वही उसकी विकास की यात्रा के लिए उपाय है। यह होगा ही। इस जगत में पापी से पापी के भीतर संत होगा, इस जगत में संत से संत के भीतर थोड़ासा पापी होगा। लेकिन संत वही है जो इस छोटे से पापी को भी जानता है, और इसे नेसेसरी ईविल की तरह स्वीकार करता है। वह मानता है कि यह अनिवार्य है, जीवन के साथ है। जब कोई संत कह दे कि अब मैं इस पृथ्वी पर पूर्ण हूं तो समझना कि थोड़ी चूक हो गई। वह अपने भीतर कुछ हिस्सा देखने से इनकार कर रहा है। वह इनकार नहीं किया जा सकता, 276 ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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