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शिक्षक मौजूद है। वह उस शिक्षक को एक जन्म जरूर लेना ही पड़ेगा। यह जन्म, यह शिक्षक होने की आकांक्षा भी हिंसा है।
तो चाहे महावीर पैदा हों, चाहे कृष्ण पैदा हों, जिसे पैदा होना है उसे हिंसा से गुजरना ही पड़ेगा। और जिस दिन इतनी हिंसा भी नहीं रह जाएगी, उस दिन महावीर के जन्म क्षीण हो जाएंगे, समाप्त हो जाएंगे, शून्य हो जाएंगे। महावीर अब लौट नहीं सकते। अब लौटने का कोई उपाय न रहा। क्योंकि लौटने की आखिरी इच्छा भी समाप्त हो गई है। वह दूसरे को सिखाने की बात ही समाप्त हो गयी है। __इसलिए मैं नहीं कहता कि जन्म हिंसा नहीं है, हिंसा है। मेरे जन्म में हिंसा है, आपके जन्म में हिंसा है, महावीर के जन्म में हिंसा है, हिंसा होगी ही। कम-ज्यादा हो सकती है; कितनी तीव्र इच्छा है जन्म लेने की, उस मात्रा में हिंसा हो जाएगी। बहुत कम रही होगी महावीर की इच्छा, क्योंकि इसके बाद फिर दुबारा जन्म नहीं हुआ है। आखिरी रही होगी, लेकिन रही है। उसके बिना तो जन्म नहीं हो सकता।
यह समझ लेना जरूरी है कि जन्म हिंसा है, जीवन हिंसा है, मृत्यु हिंसा है। हम बिना हिंसा के जी नहीं सकते। एक आदमी मांस न खाये तो कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता, सागसब्जी तो खाएगा ही। साग-सब्जी में भी उतना ही प्राण है, उतनी ही हिंसा हो रही है। पानी तो पीयेगा ही। पानी में भी प्राण है। हिंसा तो होगी ही। श्वास तो लेगा ही, श्वास में भी प्राण है, जीवन है। हिंसा तो होगी ही। एक शब्द मैं बोलता हूं, ओंठ एक बार खुलते हैं और बंद होते हैं, तो लाखों कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। हिंसा तो होगी ही। महावीर रात में एक ही करवट सोते थे, करवट नहीं बदलते थे, क्योंकि रात में दो-चार दफे करवट बदलें तो दो-चार दफे करवट के नीचे कुछ जीव जरूर दबेंगे और नष्ट होंगे। मगर एक करवट भी सोये, तब भी एक करवट के नीचे भी जीव दबते ही हैं। इतनी हिंसा तो हो जाएगी। महावीर न्यूनतम हिंसा में हैं, यह दूसरी बात है, लेकिन हिंसा के बाहर जीवन नहीं है। चलेंगे, कदम रखेंगे, श्वास लेंगे, उठेंगे, बैठेंगे, हिंसा होगी।
यह सारा का सारा जीवन हिंसा पर खड़ा है, यह सारा का सारा जीवन हिंसा के सागर में डोल रहा है। हम हिंसा के सागर में मछलियां हैं। कम-ज्यादा की बात दूसरी है। जितना कम होता जाये, उतना शुभ है, लेकिन जीते-जी अहिंसा पूरी तरह नहीं हो सकती। पूरी करने की कोशिश बहुत शुभ है। लेकिन पूरी अहिंसा तो जीते-जी नहीं हो सकती, हिंसा कुछ न कुछ बाकी रह जाएगी। आखिरी श्वास भी जब मैं लूंगा तब भी थोड़ी हिंसा बाकी रह जाएगी।
लेकिन अगर जीवन भर मैं हिंसा को कम से कम, कम से कम करता चला गया हूं, हिंसा की आकांक्षा को क्षीण करता चला गया हूं, हिंसा के रस को तोड़ता चला गया हूं, तो आखिरी क्षण में मैं उस जगह होऊंगा जहां मेरी आखिरी श्वास मेरी आखिरी हिंसा हो जाएगी। और जिस दिन मेरी आखिरी श्वास मेरी आखिरी हिंसा है, उसके बाद मेरी पहली श्वास फिर शुरू नहीं होगी। फिर बात समाप्त हो जायेगी।
तंत्र (प्रश्नोत्तर) 275
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