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घूम रहा है, और कभी हमें मौका भी नहीं मिलता है कि क्षण भर ठहर कर हम सोच लें कि हम जिंदगी में क्या कर रहे हैं। शक्ति तो खोती है, लेकिन पता तभी चलेगा जब शक्ति से कुछ पॉजिटिव, कुछ विधायक उपलब्धि होने लगे। उसके पहले पता नहीं चलता है।
ओशो, आपने कुछ दिन पहले कहा है कि संभोग में सूक्ष्म हिंसा है। तो क्या जिस संभोग से महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट तथा बुद्ध जैसे लोगों का जन्म होता है, उसमें भी हिंसा का आधार है? यदि नहीं है तो क्यों नहीं है ? और क्या ऐसे भी संभोग संभव हैं जिनमें जरा भी हिंसा न हो ?
हिंसा से रहित संभोग असंभव है। महावीर पैदा हों, कि बुद्ध पैदा हों, कि कृष्ण पैदा हों, वह हिंसा होगी ही। न्यूनतम हो, यह दूसरी बात है । लेकिन हिंसा होगी ही । हिंसा के बिना जन्म नहीं हो सकता। इसलिए जन्म की आकांक्षा भी हिंसा है। महावीर के जन्म में भी हिंसा घटित होगी ही ।
अब महावीर अगर पिछले जन्म में, जन्म लेने की थोड़ी सी भी आकांक्षा से भरे रह गए हों, तभी जन्म होगा। महावीर पर भी उस हिंसा का आरोपण है। महावीर के माता और पिता पर तो है ही, लेकिन महावीर भी उस हिंसा के भागीदार हैं। क्योंकि जन्म लेने की उनकी भी आतुरता है। माता और पिता तो सिर्फ अवसर, सिचुएशन पैदा कर रहे हैं। वह सिचुएशन तो ... ।
अभी एक पश्चिम के वैज्ञानिक डैनियल ने घोषणा की है, हम टेस्ट ट्यूब में पैदा कर देते हैं। अब जीवन यहीं पैदा हो सकेगा, हो जाएगा। कोई कठिनाई नहीं है। महावीर के मातापिता तो सिर्फ एक परिस्थिति पैदा कर रहे हैं जिसमें महावीर की आत्मा प्रवेश करती है। माता और पिता हिंसा कर रहे हैं वह तो ठीक ही है, महावीर भी थोड़ी-सी हिंसा कर रहे हैं। जन्म लेने की आकांक्षा भी हिंसा है । बुद्ध ने कहा है, जीवेषणा हिंसा है । वह जीवन की जो आकांक्षा है, लस्ट फार लाइफ, कि मैं जीऊं, मैं जन्म लूं, उसमें भी हिंसा है। महावीर की भी तो थोड़ी हिंसा तो है ही। इसलिए महावीर की जब यह हिंसा भी समाप्त हो जाती है, तो इसके बाद फिर उनका कोई जन्म नहीं हो सकता ।
महावीर के साथ एक बड़ी मीठी बात है । समस्त जैन तीर्थंकरों के साथ है। जैन परंपरा कहती है कि तीर्थंकर गोत्र भी एक बंध है। तीर्थंकर भी, आदमी किसी कर्मबंधन के कारण होता है। वह आखिरी बंधन है, स्वर्ण-बंधन है, श्रेष्ठतम बंधन है, लेकिन बंधन तो है ही। तीर्थंकर भी किसी गहरी आखिरी आकांक्षा के कारण पैदा होता है। उसने जो जाना है या जान रहा है, उसे दूसरों को देने की आकांक्षा से पैदा होता है।
ऐसी आकांक्षा भी जीवन की ही आकांक्षा है । वही तीर्थंकर-बंध है । वैसा आदमी बिना टीचर हुए नहीं रह सकता है। उसे शिक्षक होना ही पड़ेगा । उसकी भीतर कामना में कहीं गहरे
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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