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________________ जरूरत है। रुक जायें, और भीतर, और भीतर डूबते जायें। यह जो महासुख का अनुभव है, यह मृत्यु जैसा मालूम होगा । इतनी घबड़ाहट होगी । असल में यौन का मृत्यु से गहरा संबंध है। सेक्स और डेथ बहुत गहरे रूप से जुड़े हैं। आदमी भी अपने प्रत्येक संभोग में कुछ मरता है। प्रत्येक संभोग में उसकी जीवन-शक्ति क्षीण होती है। और अगर हम कुछ प्राणियों की तरफ नजर डालें तब तो बहुत हैरानी हो जाएगी। कुछ प्राणी तो एक ही संभोग में मर जाते हैं। अपनी मादा के ऊपर से उन्हें मुर्दा ही उतारा जाता है। वह जिंदा नहीं लौटते। एक ही संभोग उनकी मृत्यु बन जाती है। और भी कुछ प्राणी हैं जिनके संभोग को समझकर तो और भी हैरानी होगी। फर्क नहीं है हमारे और उनके संभोग में। सिर्फ टाइम-गैप का, समय का फर्क है। एक अफ्रीकी मकड़ा संभोग करता रहता है, और उसकी मादा उसको ऊपर से चबाना और खाना शुरू कर देती है। जब तक संभोग पूरा होता है तब तक उसका आधा शरीर खा लिया गया होता है। लेकिन दूसरे मकड़े यह देखते हुए भी फिर भी संभोग में उतरते ही रहेंगे। यह दिखाई पड़ रहा है, लेकिन प्रत्येक मकड़ा उसी तरह सोचता है जैसे प्रत्येक मनुष्य सोचता है। प्रत्येक मकड़ा इसी तरह सोचता है कि यह उसके साथ घट रहा है, मैं तो अपवाद हूं, मैं एक्सेप्शन हूं। मेरे साथ क्यों घटेगा ! प्रत्येक आदमी के भी सोचने का ढंग यही है । मकड़ों और मनुष्यों के तर्कों में बहुत फर्क नहीं है। तर्क वही हैं। प्रत्येक आदमी सोचता है कि मैं अपवाद हूं। जब कोई आदमी सड़क पर मरता है तो ऐसा खयाल नहीं आता कि मैं भी मरूंगा । ऐसा खयाल आता है, बेचारा...! ऐसा खयाल नहीं आता है कि इधर जो है वह भी बेचारा है, और इस आदमी के मरने की खबर, मेरे मरने की खबर है। अगर हम प्राणी-जगत में यौन के सारे के सारे अनुभवों को देखने जायें तो बहुत हैरान हो जाएंगे। अधिक जगह यौन और मृत्यु साथ ही घटित हो जाते हैं। जहां साथ ही घटित नहीं होते, वहां भी प्रत्येक यौन की घटना मृत्यु को निकट लाती चली जाती है। यह जोड़ गहरा है। इसलिए संभोग के बाद जो पश्चात्ताप है, वह असल में थोड़ा-सा मर जाने का पश्चात्ताप भी है। थोड़ा आदमी मर गया। अब वह वही नहीं है जो संभोग के पहले था। कुछ खो गया है, कुछ नष्ट हो गया है, कुछ टूट गया है, पश्चात्ताप है । जीवन ऊर्जा क्षीण हुई है। इसलिए पहली दफा जब अंतर- चक्रों पर ऊर्जा पहुंचेगी या पहले चक्र पर पहुंचेगी तो ऐसा ही डर लगेगा कि कहीं मैं मर न जाऊं। इसलिए ध्यान की गहराइयों में मृत्यु का भय बड़ी मुश्किल में ला देता है, बड़ी मुश्किल पैदा कर देता है, ऐसा लगता है कि मैं मर न जाऊं ! उस वक्त तैयारी दिखानी पड़ेगी कि ठीक है। मौत का भी स्वागत है । राजी हूं। जैसे संभोग में सदा राजी रहे हैं, और मौत का स्वागत करते रहे हैं, ऐसे ही उस अंतमैथुन के पहले क्षण में भी मौत के लिए राजी होना पड़ेगा। और जो वहां मौत के लिए राजी हो जाता है, उसे तत्काल पता चल जाता है कि वह अमृत में प्रवेश कर गया है। बाहर प्रत्येक मैथुन मृत्यु में प्रवेश है। भीतर प्रत्येक मैथुन अमृत में प्रवेश है। बाहर तंत्र (प्रश्नोत्तर) Jain Education International For Personal & Private Use Only 267 www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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