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विस्फोट, एक्सप्लोजन हो जाता है। उसके बाद कोई चक्र नहीं है। उसके बाद ऊर्जा परम ब्रह्म से एक हो जाती है।
है।
ये जो अंतर-चक्र हैं व्यक्ति के अपने भीतर इनसे ही मिलन- ऊर्जा का नाम अंतमैथुन । यह सुख... तंत्र कहता है इसे महासुख, क्योंकि सुख कहना ठीक नहीं है। सुख तो वह है जो हमने दूसरों से मिलकर जाना है। हालांकि दूसरे से हम कभी मिल नहीं पाते। मिल भी नहीं पाते कि बिछुड़ना शुरू हो जाता है। मिलना हो भी नहीं पाता कि टूटना हो जाता है। मिल भी नहीं पाते कि ऊर्जाएं अलग हो जाती हैं। इसलिए दूसरे से सिर्फ मिलने की कामना ही होती है, घटना नहीं घटती । घट भी नहीं पाती कि मिट जाती है। लेकिन अपने ही भीतर त टूटने का कोई सवाल नहीं । मिलन गहरा होने लगता है, शाश्वत होने लगता है, और जैसेजैसे गहरे चक्रों पर व्यक्ति पहुंचता है वैसे-वैसे महासुख की धारा बहने लगती है। लेकिन यह महासुख की धारा यौन ऊर्जा का ही रूपांतरण है।
तो पहली तो बात गवाह होना जरूरी है। तटस्थ दृष्टि होनी जरूरी है। यौन की दुश्मनी नहीं, मित्रता नहीं, सहज भाव होना जरूरी है। और दूसरी बात, यह जो तटस्थ क्षण है, यह जो रुक जाने का, ठहर जाने का क्षण है, इस क्षण में बड़ी गहरी प्रतीक्षा और धैर्य चाहिए। क्यों? क्योंकि हमारी जिंदगी में यौन का जो अनुभव है वह एक क्षण का अनुभव है। | क्षण के भी हजारवें हिस्से का अनुभव है । और जैसे ही वह क्षण पूरा भी नहीं हो पाता कि चित्त वापस लौट जाता है। विरोध में लौट जाता है। इसलिए आदतवश जब यह ठहरने का क्षण भी आता है तंत्र में, तब भी चित्त तत्काल वापस लौटने लगता है । यह उसकी पुरानी आदत है।
इसलिए बड़े धैर्य की जरूरत है। जब भीतर के चक्रों पर ऊर्जा प्रवाहित हो, तब जरा धैर्य रखने की जरूरत है। सुख बहुत मिलेगा, लेकिन वापस मत लौट जाइए। पहले सुख का अनुभव यौन-सुख जैसा ही होता है, संभोग जैसा ही होता है । इसलिए जल्दी से वापस मत लौट जाइए। पुरानी आदत जोर करेगी। आपको पता भी नहीं चलेगा और आप पायेंगे कि आप वापस लौट गये हैं। क्योंकि चित्त हमारा मेकेनिकल हैबिट से चलता है । उसकी सारी बंधी हुई आदतें हैं। वह अपनी आदतों से ही जीता है। जैसी आदतें हैं वह वैसे ही किए चला जाता है। स्वाभाविक भी यही है, क्योंकि चित्त के पास आदत के अतिरिक्त और कोई ज्ञान नहीं है । उसका जो ज्ञान है वह यही है, वह अपनी आदत को दोहरा लेगा ।
इसलिए तंत्र की ध्यान-साधना में बड़ी से बड़ी जो बात है जानने की वह यह है कि पहले क्षण का पहले चक्र पर अनुभव संभोग जैसा होगा, तब मन एकदम लौट जाना चाहेगा। उस वक्त धैर्य और प्रतीक्षा, पेसेंट अवेटिंग की जरूरत है। उसमें जल्दी मत लौट जाइये । कठिनाई होगी, दस-पांच दफा वापिस लौट ही जाइयेगा, लेकिन उस वक्त धैर्य रखिये, उसे देखते रहिए, देखते रहिए । एक-एक क्षण लंबा मालूम होगा, कि बहुत टाइमलेस है, कि कब पूरा होगा। क्योंकि मन की आदत क्षण के सुख की ही है। अगर महासुख उतरेगा तो भी घबराकर वापस लौट जाता है। इस क्षण में ही तपश्चर्या की जरूरत है। इस क्षण में धैर्य की
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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