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इसलिए मोनेस्ट्री में भागा हुआ व्यक्ति, आश्रम में भागा हुआ व्यक्ति अपने चित्त में रोजरोज काम की तरंगों को उठता हुआ अनुभव करेगा। पुकार आती रहेगी उस दूसरे पहलू से, जिसको छोड़ा नहीं गया, सिर्फ दबाया गया है। सिक्के के दोनों पहलू एक साथ छोड़े जा सकते हैं, एक पहलू कभी भी नहीं छोड़ा जा सकता है। ज्यादा से ज्यादा हम एक पहलू को नीचे कर सकते हैं, दूसरे को ऊपर कर सकते हैं। लेकिन अगर हाथ में सिक्का है, तो दूसरा पहलू भी हाथ में है। इसलिए त्यागी निरंतर भोग का आकर्षण अनुभव करता है, और इसलिए त्यागी निरंतर भोग के खिलाफ बोलता रहता है। वह आपको नहीं समझा रहा है, वह अपने को ही समझा रहा है।
___ इसलिए दुनिया के समस्त त्यागियों ने भोग को ऐसी गालियां दी हैं कि शक होता है कि उनके चित्त में जरूर ही भोग का आकर्षण रहा होगा, अन्यथा इस तरह की गालियों का कोई प्रयोजन नहीं है। अगर भोग छूट ही गया हो तो उसको गाली देने में भी रस नहीं रह जाएगा। लेकिन अगर त्यागियों के ग्रंथ उठाकर देखें तो बड़ी हैरानी होगी। जिस तरह भोगी प्रशंसा कर रहे हैं, उसी तरह त्यागी निंदा कर रहे हैं।
भोगी क्यों प्रशंसा कर रहा है? भोगी अपने पश्चात्तापों को मिटाने के लिए प्रशंसा किये चला जा रहा है। वह अपने को समझा रहा है कि पश्चात्ताप व्यर्थ थे। क्षण की कमजोरी थी, बेकार थी। आकर्षण बहुत है, रस बहुत है, स्वर्ग बहुत है। वह अपने पश्चात्तापों को धो डालने के लिए प्रशंसा कर रहा है। और ऐसी प्रशंसा कर रहा है जो सत्य नहीं है। प्रशंसाएं कभी सत्य नहीं होती। और त्यागी उससे उलटा निंदा कर रहा है। वह अपने भोग के क्षणों में पाए गए सुख की स्मृतियों को झुठलाने की कोशिश में लगा है। वह कह रहा है, सब गलत है। मन से कह रहा है, झूठ हैं ये बातें, नर्क हैं बिलकुल। मन स्वर्ग की स्मृतियां दिलाता है। वह नर्क कह-कह कर उन स्मृतियों को नष्ट करने में लगा है। लेकिन ये दोनों ही दमन कर रहे हैं। भोगी त्याग का दमन कर रहा है, त्यागी भोग का दमन कर रहा है। ये दोनों ही सप्रेसिव माइंड हैं।
यह बात भी खयाल में ले लेनी जरूरी है। आमतौर से हम त्यागी को दमनकारी कहते हैं, लेकिन भोगी को हम कभी दमनकारी नहीं कहते। यह गलत बात है। त्यागी भी दमन करता है, भोग का दमन करता है। भोगी भी दमन करता है, अपने पश्चात्तापों, अपने त्यागों का दमन करता है। दोनों ही दमन करते हैं।
तंत्र कहता है, दमन मत करो, देखो, जानो, पहचानो। इन दोनों के द्वंद्व से बचो। यह द्वैत गलत है। न तो प्रशंसा करो, न निंदा करो। क्योंकि अभी प्रशंसा करोगे तो थोड़ी देर बाद निंदा करोगे। जैसे दिन के पीछे रात और रात के पीछे दिन, ऐसे ही प्रशंसा के पीछे निंदा और निंदा के पीछे प्रशंसा उनका वर्तुल घूम रहा है। तो तंत्र कहता है कि तुम देखो कि दोनों ही व्यर्थ हैं। ऊर्जा को तटस्थ देखो। समस्त ऊर्जा तटस्थ है। न शुभ है, न अशुभ है। न त्यागने योग्य है, न भोगने योग्य है।
अगर कोई व्यक्ति अपनी जीवन-ऊर्जा को इस दोहरे द्वंद्व से बचाकर देख पाये, तो क्या
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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