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बीज को खोजने जाएंगे तो कहीं भी उसे खोज नहीं सकेंगे। कहा जा सकता है, बीज मिट गया। लेकिन गलत होगी वह भाषा। बीज मिटा नहीं, रूपांतरित हो गया। क्योंकि जहां बीज था, वहां अब वृक्ष है; जो बीज था, वही अब वृक्ष है।
ब्रह्मचर्य सेक्स का विनाश नहीं है, ब्रह्मचर्य वहां है अब, जहां कल काम था। जहां कल काम की ऊर्जा बाहर की तरफ दौड़ रही थी, आज वहां वही ऊर्जा ब्रह्मचर्य बनकर भीतर की तरफ दौड़ी चली जा रही है। जहां कल तक जिस ऊर्जा की गति बहिर्गामी थी, वही ऊर्जा की गति अब अंतर्गामी हो गई है। जो ऊर्जा केंद्र से परिधि की तरफ दौड़ती थी, अब परिधि से केंद्र की तरफ दौड़ने लगी है। लेकिन ऊर्जा वही है। ऊर्जा विनष्ट नहीं होती है। तंत्र ने इस घोषणा को विज्ञान की आधुनिक समझ के बहुत पहले मनुष्य को दिया है।
तंत्र कहता है, किसी शक्ति को नष्ट करने के पागलपन में मत पड़ जाना, अन्यथा स्वयं ही टूटोगे, बिखरोगे, शक्ति को नष्ट नहीं कर पाओगे। इसलिए जो लोग भी काम से लड़ेंगे, वे ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होते, सिर्फ विकृतियों को, परवर्सन को उपलब्ध होते हैं। जो व्यक्ति भी अपने काम से संघर्षरत हो जायेगा, शत्रुता पाल लेगा...और हममें से अधिक लोग काम से शत्रुता पाले हुए हैं। ___असल में हम या तो शत्रुता पालना जानते हैं या मित्रता पालना जानते हैं। दोनों के बीच में ठहरना हम नहीं जानते। या तो हम पागल की तरह मित्र बन जाते हैं या हम पागल की तरह शत्रु बन जाते हैं, लेकिन हमारा पागलपन कायम रहता है। हम कभी भी तटस्थ होकर नहीं देख पाते। ___तंत्र कहता है, काम को तटस्थ होकर देखना पहला सूत्र है। काम को मित्र की तरह मत देखो, शत्रु की तरह मत देखो; काम को भोगने योग्य की भांति मत देखो, काम को त्यागने योग्य की भांति मत देखो। काम को देखो एक शुद्ध ऊर्जा की भांति, एक प्योर एनर्जी की भांति। वह सत्य भी है। मित्रता, शत्रुता हमारे दृष्टिकोण हैं, तथ्य नहीं हैं। मित्रता, शत्रुता हमारी व्याख्याएं हैं, इंटरप्रिटेशन्स हैं, तथ्य नहीं हैं। तथ्य तो इतना ही है कि वह एक ऊर्जा, एक विराट ऊर्जा, जो बाहर की तरफ फैलती चली जाती है, जो दूसरे की मांग करती है, जो विरोधी की मांग करती है, इस ऊर्जा को ऊर्जा की तरह देखें। तंत्र का यह पहला सूत्र है। ___ और इसे ऊर्जा की तरह देखते ही सारी दृष्टि बदल जाती है। क्योंकि तब न हम भोगने को आतुर हैं, न हम त्यागने को आतुर हैं। जो त्यागने को आतुर है, वह हारा हुआ भोगी है, थका हुआ भोगी है, ऊबा हुआ भोगी है, परेशान हुआ भोगी है। वह भोगी ही है, जो अब त्याग की बात कर रहा है। लेकिन जब भोग से ऊब गया आदमी तो त्याग पर कितने दिन रुकेगा कि न ऊब पाये?
जो भोग से ऊब गया है, वह जल्दी ही त्याग से भी ऊब जाएगा। जब भोग तक से ऊब रहे हैं, तो त्याग से कैसे बच सकेंगे ऊबने से? त्याग उसी भोग का दूसरा पहलू है, वह उसी सिक्के की दूसरी तस्वीर है। जब एक पहलू से ऊब गए हैं, तब दूसरे पहलू से भी ऊब जाएंगे।
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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