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अगर कोई ब्रह्मचर्य तक पहुंचना चाहता है तो काम से लड़कर नहीं, क्योंकि तंत्र कहता है कि स्वयं से लड़कर तो हम कहीं भी नहीं पहुंच सकते हैं। लड़ेगा कौन? लड़ेगा किससे? हम एक हैं। लड़ने का अर्थ है, अपने को दो खंडों में बांटना होगा। वह सीजोफ्रेनिक है। इस तरह व्यक्ति दो खंडों में टूटकर विक्षिप्त होगा। उससे स्प्लिट पर्सनैलिटी पैदा होगी। सिर्फ हमारे भीतर खंड-खंड छितर जाएंगे। तंत्र कहता है कि काम को ही रूपांतरित करना है ब्रह्मचर्य तक, काम की ही शक्ति को ले जाना है ब्रह्म तक। वही काम की शक्ति जो दूसरे तक दौड़ती है, उसे पहुंचाना है स्वयं तक। वही काम की शक्ति जो दूसरे की आकांक्षा करती है, उससे ही आकांक्षा करवानी है स्वयं की गहराइयों की। वही काम की शक्ति जो छुद्र सुख को खोजती है, उसी काम-शक्ति को मोड़ देना है विराट, अनंत आनंद की ओर, शाश्वत की
ओर, मुक्ति की ओर। तंत्र की इस दृष्टि को मैं अद्वैत की दृष्टि कहता हूं। . __ वे सारे लोग जो जीवन को कलह की भाषा में, कांफ्लिक्ट की भाषा में देखते हैं, द्वैतवादी हैं, डुआलिस्ट। वे मानते हैं कि जीवन में दो तत्व हैं, और दोनों को लड़ाना है। शरीर को लड़ाना है आत्मा से, परमात्मा को लड़ाना है प्रकृति से, काम को लड़ाना है ध्यान से। लड़ाने की ही भाषा में उनके सारे चिंतन का जाल फैलता है। ऐसे लड़ानेवाले लोग जीवन के सत्य को नहीं जानते।
तंत्र कहता है, लड़ाना नहीं है, रूपांतरित करना है, ट्रांसफार्म करना है, जो हमारे पास है। आज विज्ञान भी तंत्र की बात से सहमत है। क्योंकि विज्ञान ने अगर इधर तीन सौ वर्षों में कुछ भी मौलिक सिद्धांतों की घोषणा की है तो उनमें एक सिद्धांत यह है कि ऊर्जा का हनन नहीं हो सकता। एनर्जी को नष्ट नहीं किया जा सकता। ऊर्जा को नष्ट करने का कोई उपाय ही नहीं है। हम सिर्फ बदल सकते हैं, विनष्ट नहीं कर सकते। एक रेत के छोटे-से कण को भी विज्ञान की महत्तम से महत्तम शक्ति नष्ट नहीं कर सकती, जो उस रेत के कण में छिपा है। हां, उसे रूपांतरित कर सकती है; उसे दूसरा रूप दे सकती है। दूसरा फार्म, दूसरी आकृति, दूसरा जीवन, दूसरा जगत, सब कुछ बदला जा सकता है, लेकिन उस रेत के छोटे से कण में जो ऊर्जा, जो एनर्जी छिपी है उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। विज्ञान कहता है, इस जगत में कछ भी विनष्ट नहीं होता है।
इसका दूसरा पहलू भी है। इस जगत में किसी भी चीज की सृष्टि नहीं होती। न कुछ मिटता है, न कुछ बनता है, सिर्फ रूपाकृतियां बदलती हैं। बीज था, वृक्ष हो जाता है। बीज मिट जाता है, लेकिन हमारे देखने की कमी के कारण। बीज मिटता नहीं, बीज में छिपी ऊर्जा वृक्ष बन जाती है। फिर कल वृक्ष मर जाता है, मिट जाता है, और हजारों बीजों को अपने पीछे फिर छोड़ जाता है। ऊर्जा सिर्फ रूप बदलती रहती है, ऊर्जा नष्ट नहीं होती है। न कुछ बनता है जगत में, न कुछ मिटता है।
इसलिए जो लोग बनाने-मिटाने की भाषा में सोचते हैं, वे अवैज्ञानिक ढंग से सोचते हैं। सेक्स को मिटाया नहीं जा सकता, लेकिन एक अर्थों में सेक्स बिलकुल विदा हो सकता है, जैसे बीज विदा हो गया। आज कहां है वह बीज जो कल था? अब वह वृक्ष है। अगर
तंत्र (प्रश्नोत्तर) 259
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