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________________ तंत्र अद्वैत है। उस एक की ही स्वीकृति है। वह जो बुरा है, वह भी उस एक का ही रूप है। वह जो अशुभ है, वह भी उस एक का ही रूप है। तंत्र के मन में निंदा किसी की भी नहीं है। कंडेमनेशन है ही नहीं। जी.एम.एन. टारेल ने एक किताब लिखी है, 'ग्रेड्स ऑफ सिग्निफिकेंस', महत्ता की सीढ़ियां या महत्ता के सोपान। तंत्र की दृष्टि में जीवन में जो फर्क हैं, वह महत्ता के सोपानों के फर्क हैं। लेकिन पहली सीढ़ी भी मंदिर की अंतिम सीढ़ी का ही हिस्सा है। यदि पहली सीढ़ी हटा दी जाये तो मंदिर की अंतिम सीढ़ी तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। जमीन के नीचे छिपी हुई कुरूप जड़ें भी आकाश में खिले हुए फूलों के प्राण हैं। और अगर कुरूप, अंधकार में डूबी हुई जड़ों को काट दिया जाये, तो आकाश में खिलनेवाले सुंदर फूलों की कोई संभावना नहीं। मंदिर की बुनियाद में पड़े हुए बेढंगे पत्थर ही मंदिर के शिखर पर चढ़े हुए स्वर्ण-कलश को संभाले हुए हैं। उन्हें इनकार कर दिया जाये, तो स्वर्ण-कलश भी जमीन पर धूल-धूसरित होकर गिर पड़ता है। ___ तंत्र, जीवन को उसकी समग्रता में स्वीकार करता है। इस बात को पहले समझ लेना जरूरी है। क्योंकि इसी आधार पर तंत्र ने काम-ऊर्जा के रूपांतरण के विज्ञान को विकसित किया है। तंत्र की दृष्टि में काम-ऊर्जा दिव्य-ऊर्जा का पार्थिवीकरण है। तंत्र की दृष्टि में सेक्स एनर्जी, काम-ऊर्जा, ब्रह्म की ही पहली सीढ़ी है। इसका अर्थ यह नहीं है कि तंत्र चाहता है कि व्यक्ति काम में डूबा रहे। इसका इतना ही अर्थ है कि हम जहां खड़े हैं, यात्रा वहीं से करनी पड़ेगी; और हम जहां खड़े हैं अगर वह भूमि, उस भूमि से नहीं जुड़ी है जहां हमें पहुंचना है, तो फिर यात्रा का कोई उपाय नहीं। मनुष्य काम में खड़ा है। ___ मनुष्य काम में, काम की भूमि में, मौजूद है। जहां हम अपने को प्रकृति की तरफ से पाते हैं, वह बिंदु काम का, सेक्स का बिंदु है। प्रकृति हमें वहीं खड़ा किए हुए है। कोई भी यात्रा इस बिंदु से ही होगी। अब इस बिंदु से हम दो तरह की यात्रा कर सकते हैं। ___एक, जो साधारणतः लोग करने की कोशिश करते हैं, लेकिन कभी कर नहीं पाते, वह यह कि हम अपनी स्थिति से लड़ना शुरू कर दें। हम जहां खड़े हैं, उस भूमि के दुश्मन हो जायें, अर्थात हम अपने ही दुश्मन हो जायें और अपने को ही दो हिस्सों में खंडित कर लें। एक वह हिस्सा, जिसकी हम निंदा करते हैं, जो हम हैं। और एक वह हिस्सा जिसकी हम प्रशंसा करते हैं, जो हम अभी नहीं हैं, जो हम होना चाहते हैं। हम अपने को दो हिस्सों में तोड़ लें : जो है और जो होना चाहिए। और जब भी कोई व्यक्ति अपने को ऐसे दो खंडों में तोड़ता है तो पहली तो बात यह समझ लेनी चाहिए कि जिसे वह इनकार कर रहा है वही वह है, और जिसे वह स्वीकार कर रहा है वही वह नहीं है। उसका सारा जीवन अब एक बहुत बेहूदे, एब्सर्ड संघर्ष में उतर जाएगा। जो वह नहीं है, समझना चाहेगा कि मैं हूं, और जो वह है उसे इनकार करना चाहेगा कि वह मैं नहीं हूं। ऐसे व्यक्ति केवल विक्षिप्त हो सकते हैं। तंत्र की दृष्टि में यह अंतर-कलह है। 258 ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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