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और जब मैंने आहार की पूरी बात कही तो इसको भी ध्यान में ले लेना जरूरी है। जो साधक है, जो अपनी काम-ऊर्जा को ऊपर ले जाना चाहता है, वह सभी कुछ नहीं पढ़ेगा, वह सभी कुछ नहीं देखेगा, वह सभी कुछ नहीं सुनेगा। वह इस बात का विचार करके सुनेगा कि जो संगीत उत्तेजित करता है, वह व्यर्थ है। जो संगीत शांत करता है, वह सार्थक है। वह ऐसे दृश्य नहीं देखेगा जो उत्तेजना से भर देते हैं। ___ अब आपने देखा होगा...फिल्म भी अगर आप देख रहे हैं तो अक्सर वैसी ही फिल्म ज्यादा देखी जाती हैं जो थ्रीलिंग हैं, जो उत्तेजक हैं, जिनमें आपके रोयें-रोयें खड़े हो जायें और रोंगटे खड़े हो जायें। जो रोमांचकारी हैं। इसलिए फिल्म का एडवरटाइज करने वाला अपनी फिल्म के एडवरटाइज के लिए लिखेगा कि ऐसी रोमांचक फिल्म कभी नहीं बनी, आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे। लेकिन जिस फिल्म में आपके रोंगटे खड़े हो रहे हैं, आप गलत आहार कर रहे हैं। वह उत्तेजक है, डिटेक्टिव है, हत्या है, खून है, वह सब का सब आपको उत्तेजना से भर रहा है। __ अगर फिल्म को देखते वक्त आप किसी दिन फिल्म न देखें, कोने में खड़े हो जायें और लोगों को देखें, फिल्म मत देखें। तो आपको पता चल जाएगा कि कौन सी चीज उत्तेजित करती है। जब उत्तेजना का चित्र आएगा तो सारे लोग अपनी कुर्सियां छोड़कर रीढ़ को सीधा कर लेंगे, सांसें उनकी ठहर जाएंगी, कि पता नहीं सांस के लेने में कोई चीज चूक न जाये। बिलकुल वे थिर हो जाएंगे। जब उत्तेजक चित्र चला जाएगा, फिर वे अपनी कुर्सी पर वापस टिक जायेंगे, फिर वे आराम से देखने लगेंगे। जितनी बार किसी फिल्म में आदमी कुर्सी छोड़कर बैठ जाता है, उतनी ही उसकी सेक्स-ऊर्जा को नीचे की तरफ जाने में सुविधा बनेगी। __ लेकिन हम रास्ते पर भी सब-कुछ देख रहे हैं, बिना फिक्र किए कि सब-कुछ देखना अनिवार्य नहीं है, न उचित है। न सब-कुछ देखना-पढ़ना अनिवार्य है, न उचित है। व्यक्ति को प्रतिपल चुनाव करना चाहिए। वह वही भीतर ले जाये जो उसकी जिंदगी को ऊपर ले जानेवाला है। और अगर उसे जिंदगी को नीचे ही ले जाना है तो भी सोच समझ कर ले जाये। फिर वही ले जाये जो नीचे ले जाने वाला है।
लेकिन हमें कुछ पता नहीं है। हम अंधों की तरह टटोलते रहते हैं। एक हाथ ऊपर भी मारते हैं, एक हाथ नीचे भी मारते हैं। सुबह चर्च भी हो आते हैं, सांझ फिल्म भी देख आते हैं। चर्च में चर्च की घंटी भी सुन लेते हैं, होटल में जाकर नृत्य भी देख आते हैं। हम इस तरह से अपनी जिंदगी को अपने हाथों से काटते रहते हैं। इस तरह हम अपनी जिंदगी को दोनों तरफ फैलाये रहते हैं और कहीं भी नहीं पहुंच पाते।
निर्णय चाहिए। नीचे जाना है तो जायें और पूरा नर्क तक छू कर लौटें। लेकिन तब भी व्यवस्था चाहिए, तब भी साधना चाहिए। तब फिर ऊपर की बातों को छोड़ दें। फिर चर्च की तरफ भूलकर मत देखें, फिर मंदिर की तरफ मुड़कर भी न जायें, फिर कभी गीता से कोई संबंध न बनायें, फिर साधु से बचें, फिर इनको भूल जायें कि ये दुनिया में हैं, फिर ये बुद्ध, महावीर, कृष्ण, इनके नाम भी न लें। क्योंकि ये ठीक लोग नहीं हैं, आपकी यात्रा
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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