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________________ ऐसा नहीं है जो बाहर लाये और भीतर न ले जा सके। जिंदगी दोहरे आयाम में फैलती है। अगर ऊर्जा नीचे उतर सकती है तो ऊर्जा ऊपर जा सकती है। इस पहले नियम को मनको ठीक से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि जो हो सकता है मन केवल उसी को करने को राजी होता है कि यह हो सकता है। मन असंभव की तलाश छोड़ देता है । उसे साफ खयाल में आना चाहिए कि यह हो सकता है। अगर पहाड़ से पानी नीचे की तरफ गिरता है तो साधारणतः पानी पहाड़ से नीचे की तरफ ही गिरता है, ऊपर की तरफ नहीं जाता। हजारों साल तक ऊपर तक ले जाने का हमें कुछ भी पता नहीं था। लेकिन जो चीज नीचे आ सकती है तो ऊपर भी जा सकती है। लेकिन अब हम पहाड़ों की ऊंचाई पर पानी को पहुंचा भी सकते हैं। क्योंकि जिस नियम से पानी नीचे आता है उस नियम के विपरीत प्रयोग करने से पानी ऊपर चढ़ जाता है। यौन- ऊर्जा नीचे की तरफ सहज आती है। प्रकृति की तरफ से आती है। अगर किसी मनुष्य को उस ऊर्जा को ऊपर ले जाना है तो यह सहज नहीं होगा । प्रकृति की तरफ से नहीं होगा। यह संकल्प से होगा। यह मनुष्य के प्रयास, मनुष्य की आकांक्षा और अभीप्सा और श्रम से होगा। मनुष्य को इस दिशा में श्रम करना पड़ेगा, क्योंकि प्रकृति से उलटी दिशा में बहना पड़ेगा। नदी में अगर नीचे की तरफ बहना हो, सागर की तरफ, तब तैरने की कोई भी जरूरत नहीं है। तब हम हाथ-पैर छोड़कर सागर की तरफ बह जा सकते हैं। नदी ही सागर की तरफ ले जाएगी, हमें कुछ भी करना नहीं । लेकिन अगर नदी के मूल स्रोत की तरफ, उदगम की तरफ जाना हो तो फिर तैरना पड़ेगा, श्रम उठाना पड़ेगा। फिर एक संघर्ष होगा। नदी की धारा से संघर्ष होगा। तो जो लोग भी ऊपर की तरफ जाना चाहते हैं, उन्हें दूसरी बात समझ लेनी चाहिए कि संकल्प और संघर्ष मार्ग होगा। ऊपर जाया जा सकता है, और ऊपर जाने के अपूर्व आनंद हैं। क्योंकि नीचे जाकर जब सुख मिलता है— क्षणिक सही, पर मिलता है - तो ऊपर जाकर क्या मिल सकता है, उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते । यौन-ऊर्जा नीचे बहकर जो लाती है वह सुख है, और यौन ऊर्जा ऊपर उठकर जो लाती है वह आनंद है। यौन- ऊर्जा नीचे जाकर जिसे लाती है वह क्षणिक है, क्योंकि वह घटना ही क्षणिक है। खोने की घटना क्षणिक ही होगी, संगृहीत करने की घटना शाश्वत हो सकती है। नीचे जाकर आप खोते हैं, खोने की घटना क्षणिक है। एक क्षण को खोने का क्षण ही सबकुछ है। लेकिन ऊपर आप संगृहीत करते हैं। ऊपर रिजर्वायर बनाते हैं । यह रिजर्वायर अनंत हो सकता है । वह रोज बढ़ता जाता है । सुख मिलते ही घटना शुरू हो जाता है। आनंद मिलते ही बढ़ना शुरू हो जाता है। और सुख जब घटता है तो दुख बढ़ता है। इसलिए हर सुख के पीछे दुख की काली छाया खड़ी होती है, और हर आनंद के पीछे आनंद की और बढ़ती हुई प्रकाशित दुनिया होती है। आनंद पीछे दुख की कोई छाया नहीं होती । आनंद और गहरा होता चला जाता है, क्योंकि संग्रह रोज बढ़ता जाता है और अनंत संग्रह की संभावना है। 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only अकाम (प्रश्नोत्तर) 237 www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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