________________
कटिंग काटकर मैंने अपना चेहरा बनाया है। आपकी बातें सुनकर, आपकी ओपिनियन इकट्ठी करके, मैंने अपनी प्रतिमा बनाई है। अगर उसमें से एक पीछे खिसक जाता है-कोई भक्त गाली देने लगता है, कोई अनुयायी दुश्मन हो जाता है, कोई मित्र साथ नहीं देता, कोई बेटा बाप को इनकार करने लगता है तो बाप की प्रतिमा गिरने लगती है, गुरु की प्रतिमा गिरने लगती है। वह घबड़ाने लगता है कि मरा। क्योंकि मेरी तो अपनी कोई शक्ल नहीं है, मेरी अपनी कोई प्रतिमा नहीं। इन्हीं सबने मुझे एक प्रतिमा दी थी।
बाप को अपने बाप होने का पता नहीं है, किसी के बेटा होने भर का पता है। उसके बेटा होने की वजह से वह बाप है। अगर वह बेटा, बेटा होने से इनकार करने लगे, तो बाप का बाप होना मुश्किल में पड़ गया! पति को पति होने का कोई पता नहीं है, वह पत्नी के संदर्भ में पति है। अगर पत्नी जरा ही स्वतंत्रता लेने लगे तो उसका पति होना गड़बड़ हो गया। हम सब दूसरों के ऊपर निर्भर हैं। वह जो दूसरे पर निर्भर है, वह निरंतर दूसरे को देखता रहेगा।
स्वप्न में भी हम दूसरे को देखते हैं। जागने में भी दूसरे को देखते हैं। ध्यान के लिए बैठे तो भी दूसरे का ध्यान करते हैं। अगर ध्यान को भी बैठेंगे, तो महावीर का ध्यान करेंगे, बुद्ध का ध्यान करेंगे, कृष्ण का ध्यान करेंगे। वहां भी 'द अदर' मौजूद है। जिस ध्यान में दूसरा मौजूद है, वह हिंसात्मक ध्यान है। जिस ध्यान में आप ही रह गये सिर्फ, वह शायद आपको अहिंसा में ले जाये। __ दूसरा है, इसलिए नहीं दिखाई पड़ रहा। हम दिखाई नहीं पड़ रहे हैं तो हमारी चेतना दूसरे पर केंद्रित हो गई है। जिस दिन मैं दिखाई पडूंगा मुझे, उस दिन आप दूसरे की तरह दिखाई पड़ने बंद हो जायेंगे।
इसलिए महावीर जब चींटी से बच कर चल रहे हैं तो आप इस भ्रांति में मत रहना कि आप भी जब चींटी से बच कर चलते हैं, तो वही कारण है जो महावीर का कारण है। आप जब चींटी से बच कर चलते हैं, तो चींटी से बच कर चल रहे हैं। और महावीर जब चींटी से बच कर चलते हैं तो अपने पर ही पैर न पड़ जाये, इसलिए बच कर चल रहे हैं! इन दोनों में बुनियादी फर्क है। महावीर का बचना अहिंसा। आपका बचना हिंसा ही है। दूसरा मौजूद है कि चींटी न मर जाये। और चींटी न मर जाये इसकी चिंता आपको क्यों है? इसकी चिंता सिर्फ इसलिए है कि कहीं चींटी के मरने से पाप न लग जाये। वह अदर ओरियेंटेड कांशसनेस है। कि कहीं चींटी के मरने से पाप न लग जाये, कहीं चींटी के मरने से नरक में न जाना पड़े, कहीं चींटी के मरने से पुण्य न छिन जाये, कहीं चींटी के मरने से स्वर्ग न खो जाये! चींटी से कोई प्रयोजन नहीं है, प्रयोजन सदा अपने से है। लेकिन चींटी पर ओरियेंटेड है। दिमाग चींटी पर केंद्रित है, चींटी से बच रहे हैं।
नहीं, आपको ऐसा नहीं लगता जैसा महावीर को लगता है। महावीर का चींटी से बचना बहुत भिन्न है। वह चींटी से बचना ही नहीं है। अगर महावीर से हम पूछे कि क्यों बच रहे हैं? तो वह कहेंगे, अपने पर ही पैर कैसे रखा जा सकता है? नहीं, यह बचना नहीं है। असल में अपने पर पैर रखना असंभव है।
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org