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अब हम जानते हैं कि कोई यज्ञ की वेदी नहीं है, जहां काटा जा सके। और अगर काटना है तो ईमानदारी से यह कहकर काटो कि मुझे काटना है! इसमें देवता को क्यों फंसाते हो? इसमें भगवान को क्यों बीच में लाते हो?
रामकृष्ण की जिंदगी में एक उल्लेख है कि एक आदमी रामकृष्ण के पास निरंतर आता था। हर वर्ष काली के उत्सव पर वह सैकड़ों बकरे कटवाता था। फिर बकरे कटने बंद हो गये। फिर उस आदमी ने जलसा मनाना बंद कर दिया। फिर दो वर्ष बीत गये। रामकृष्ण के पास वह बहुत दिन नहीं आया। फिर अचानक आया। रामकृष्ण ने कहा, क्या काली की भक्ति छोड़ दी? अब बकरे नहीं कटवाते? उसने कहा, अब दांत ही न रहे, अब बकरे कटवाने से क्या फायदा? तो रामकृष्ण ने कहा, क्या तुम दांतों की वजह से बकरे कटवाते थे? तो उसने कहा, जब दांत गिरे तब मुझे पता चला कि अब मुझे कोई रस न रहा। ऐसे मांस खाने में कठिनाई पड़ती है, काली की आड़ ले कर खाना आसान हो जाता है।
लेकिन पुरानी वेदियां गिर गईं धर्म की। अब का धर्म विज्ञान है। इसलिए विज्ञान की वेदी पर अब हिंसा चलती है, बहुत तरह की हिंसा चलती है। विज्ञान हजार तरह के टार्चर के उपाय कर लेता है, लेकिन कोई इनकार हम नहीं करेंगे। इसी तरह कभी हमने धर्म की वेदी पर इनकार नहीं किया था, क्योंकि उस समय धर्म की वेदी स्वीकृत थी। अब विज्ञान की वेदी स्वीकृत है। __ अगर एक वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में जायें तो बहुत हैरान हो जायेंगे। कितने चूहे मारे जा रहे हैं। कितने मेढक काटे जा रहे हैं। कितने जानवर उल्टे-सीधे लटकाये गये हैं। कितने जानवर बेहोश डाले गये हैं। कितने जानवरों की चीर-फाड़ की जा रही है। यह सब चल रहा है। लेकिन वैज्ञानिक को बिलकुल पक्का खयाल है कि वह हिंसा नहीं कर रहा है। उसका खयाल है कि वह आदमी के लिए सुख खोजने के लिए कर रहा है। बस, तब हिंसा ने अहिंसा का चेहरा ओढ़ लिया। अब चलेगा!
अब आप जब किसी को प्रेम करते हैं तो खयाल करना कि आपके भीतर की हिंसा प्रेम की शक्ल तो नहीं बन जाती? अगर बन जाती है तो वह खतरनाक से खतरनाक शक्ल है, क्योंकि उसका स्मरण आना बहुत मुश्किल है। हम समझते रहेंगे, हम प्रेम ही कर रहे हैं।
दूसरा, तब तक दूसरा है, जब तक मुझे मेरा पता नहीं है। इसे मैं हिंसा की बुनियाद कहता हूं। हिंसा का अर्थ है : द अदर ओरियेंटेड कांशसनेस, दूसरे से उत्पन्न हो रही चेतना। स्वयं से उत्पन्न हो रही चेतना अहिंसा बन जाती है, दूसरे से उत्पन्न हो रही चेतना हिंसा बन जाती है। लेकिन हमें दूसरे का ही पता है। हम जब भी देखते हैं, दूसरे को देखते हैं। और अगर हम कभी अपने संबंध में भी सोचते हैं, अपने बाबत भी सोचते हैं, तो हमेशा वाया द अदर, वह दूसरे हमारी बाबत क्या सोचते हैं, उसी तरह सोचते हैं। अगर मेरी अपनी भी कोई शक्ल है, तो वह आपके द्वारा दी गई शक्ल है।
इसलिए मैं सदा डरा रहूंगा कि कहीं आपके मन में मेरे प्रति बुरा खयाल न आ जाये, अन्यथा मेरी शक्ल बिगड़ जायेगी। क्योंकि मेरी अपनी तो कोई शक्ल है नहीं। अखबारों की
अहिंसा
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