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वह नाचती हुई आश्रम में चिल्लाने लगी कि मैं सीख गई। लोगों ने कहा, किस शास्त्र से सीखी है? हमको भी बता दो। और भी सीखनेवाले लोग मौजूद थे।
उसने कहा, शास्त्र से नहीं सीखा है। एक सूखे पत्ते को वृक्ष से गिरते देखकर बस, सब हो गया। पर उन्होंने कहा, पागल, वृक्षों से सूखे पत्ते तो हमने भी बहुत गिरते देखे हैं, तुझे क्या हो गया? उसने कहा, जैसे ही वृक्ष से सूखा पत्ता गिरा, मेरे भीतर भी कुछ गिर गया
और मुझे लगा कि आज नहीं कल सूखे पत्ते की तरह गिर जाऊंगी। तो जब सूखे पत्ते की तरह गिर ही जाना है तो इतनी अकड़ क्यों, इतना अहंकार क्यों? और सूखा पत्ता हवा में यहांवहां डोलने लगा, पूरब-पश्चिम होने लगा। हवा उसे टक्कर देने लगी। वह सड़कों पर भटकने लगा। आज नहीं कल जिसे मैं 'मैं' कहती हूं, वह भी कल राख हो जाएगा और सड़कों पर हवाएं उसे धक्के देंगी। वह सूखे पत्ते की तरह भटकेगा। आज से अब मैं नहीं हूं। मैंने सूखे पत्ते से सीख लिया है।
सीखने का मतलब? सीखने का मतलब खुली आंख रखें और चुनौतियां लें। आने दें चुनौतियां। सब तरफ से आती हैं। बाप को बेटे से आ सकती है। बेटे को बाप से आ सकती है। राह चलते अजनबी से मिल सकती है। पड़ोसी से मिल सकती है। कहीं से भी मिल सकती है। सीखनेवाला चित्त चाहिए।
लेकिन इस सीखने के अर्थ को हम नहीं समझे। हम समझ रहे हैं कि बस कंठस्थ कर लो। हमारा सीखना बौद्धिक है, इंटेलेक्चुअल है! शब्द सीख लो, सिद्धांत सीख लो, कंठस्थ कर लो।
सीखना होता है टोटल, रोएं-रोएं से, श्वास-श्वास से, प्राण के कण-कण से, हृदय की धड़कन-धड़कन से। पूरा व्यक्तित्व जब सीखने को तैयार होता है तो जरा-सी चुनौती झंकार बन जाती है और सोए हुए प्राण जाग जाते हैं। लेकिन इसकी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। और जो लोग इस तरह से व्यर्थ के सीखने में लगे रहते हैं उनके पास तो समय भी नहीं बचता, सुविधा भी नहीं बचती, मन में जगह भी नहीं बचती। सब भर जाता है, सीखने को जगह नहीं बचती।
अगर किसी दिन परमात्मा के सामने खड़े होंगे और उससे कहेंगे कि मैं आपको क्यों न सीख पाया, तो वह यह नहीं कहेगा कि आपने कुछ कम सीखा इसलिए नहीं सीख पाए। वह कहेगा कि तुमने इतना सीखा कि मुझे सीखने के लिए जगह कहां बची! सीखा बहुत...। सीखते हम सब बहुत हैं, लेकिन सीखने योग्य ही छूट जाता है। चुनौती नहीं सीख पाते।
धर्म एक चुनौती है। और चुनौती सीख जायें तो कहीं से भी वह चुनौती मिल सकती है। उसके कोई बंधे-बंधाये रास्ते नहीं हैं। उसके कोई बंधे-बंधाये सूत्र नहीं हैं। जीवन कहीं से भी टूट पड़ सकता है। जीवन कहीं से भी आपको पकड़ ले सकता है। खुले रखें द्वार मन के। राह चलते, सोते, उठते, बैठते, सीखते रहें। लेते रहें चुनौती। किसी दिन चोट गहरी पड़ जाएगी और वीणा झंकृत हो जाएगी।
एक आखिरी सवाल और।
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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