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तेरे जितना ही बीज था, तेरे जैसा छोटा ही बीज था। लेकिन यह सब भीतर छिपा था। अब प्रकट हो गया है। यह मैनिफेस्ट हो गया है।
असल में तब बीज के लिए चुनौती मिल गई। अब यह बीज भी टूटेगा। लेकिन यह बीज वैसा ही वृक्ष नहीं बन सकता है। यह बीज जो बन सकता है, वही बनेगा। इस बीज के भीतर हो सकता है दूसरा वृक्ष छिपा हो। वह दूसरा वृक्ष ही बनेगा।
इतना स्मरण रहे तो प्रेरणा घातक नहीं होती, साधक हो जाती है। तो प्रेरणा शत्रु नहीं बनती, मित्र बन जाती है। प्रेरणा बाहर से आती हई सिर्फ दिखाई पड़ती है. पर आती भीतर से ही है। वह इंस्पिरेशन ही होता है। वह अंतःचोट होती है। वह बाहर से किसी चीज की चोट और भीतर कोई सोया हुआ फन उठाकर जग जाती है। और हमें पहली बार पता चलता है कि हम यह भी हो सकते हैं! इस स्मरण का नाम प्रेरणा है। और इस अर्थ में सीखना ही पड़ेगा, इस अर्थ में सीखते ही रहना है।
लेकिन सीखना और मानना बड़ी अलग-अलग बातें हैं। मानता वही है जो सीखना नहीं चाहता। जो सीखना चाहता है वह तो मानेगा नहीं, वह तो खोजेगा, खोजेगा। और तब तक नहीं मानेगा जब तक पा नहीं लेगा। वह अगर किसी बात की खोज पर भी निकलेगा तो उसकी खोज मानने की खोज नहीं, जानने की खोज होगी।
सीखने का अर्थ श्रद्धा नहीं है, सीखने का अर्थ विश्वास नहीं है, सीखने का अर्थ खोज है। सीखने का अर्थ जिज्ञासा है। सीखना एक यात्रा है। सीखना प्रारंभ है, अंत नहीं है।
लेकिन हम सब लोग सीख कर बैठ जाते हैं। हम कहते हैं, हमने तो गीता से सीख लिया। गीता के सीखने से क्या हो सकता है ? गीता सीख सकते हैं आप, लेकिन गीता सीखने से कृष्ण नहीं हो सकते। गीता पूरी की पूरी कंठस्थ करने से भी कुछ न होगा। एक बात पक्की है कि कृष्ण को गीता कंठस्थ नहीं थी और अगर दुबारा बुलवाई होती तो बड़ी भूल-चूक हो गई होती। गीता निकली है, वह याददाश्त नहीं है। वह सहज स्रोत है, जो कृष्ण से बाहर फूटा है। और आप? आप उसको बाहर से भीतर डाल रहे हैं।
नहीं, कृष्ण की गीता को पढ़कर इस आकांक्षा से भरें कि कब वह दिन आयेगा जब मेरे प्राणों से भी गीता फूटकर निकलने लगेगी। जिस दिन मेरे प्राण भी भगवद्गीता बन जाएंगे, भगवान का गीत बन जाएंगे, वह दिन कब आएगा? उसकी याद से भरें। छोड़ें कृष्ण को, छोड़ें उनकी गीता को। अपनी गीता की खोज में लगें। एक बात पक्की हो गई कि कृष्ण से फट सकती है तो मझसे क्यों नहीं फट सकती? परमात्मा पक्षपाती नहीं है। अगर कष्ण को मिल सकी है भगवद्गीता तो मुझे भी मिल सकती है। अगर उनके प्राणों के वाद्य पर यह गीत उठ सका, सिलेस्टियल सांग पैदा हो सका, तो मेरे प्राणों के वाद्य पर भी पैदा हो सकता
लेकिन हम? हम कुछ और कर रहे हैं। हम सीखने का मतलब गीता कंठस्थ करना समझते हैं। गीता से सीखने का मतलब इतना ही है कि अब मिल गई चुनौती। अब तब तक चैन नहीं कि जब तक भगवत-गीता भीतर से पैदा न होने लगे। जब तक कि वाणी का स्वरस्वर परमात्मा का स्वर न हो जाये, तब तक चैन नहीं। यह सीखें, लेकिन यह कौन सीखता
ना है।
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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