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________________ गलत है। इंस्पिरेशन का मतलब ही है अंतःप्रेरणा । दूसरा निमित्त बन सकता है, दूसरा आधार नहीं बन सकता। दूसरा चुनौती बन सकता है, नियम नहीं बन सकता। एक जला हुआ दीया, एक बुझे हुए दीये के लिए खबर बन सकता है कि मैं भी जल सकता हूं। क्योंकि बाती भी मेरे पास है, तेल भी मेरे पास है, दीया भी मेरे पास है । लेकिन जला हुआ दीया अगर बुझे हुए दीये के लिए इस तरह की प्रेरणा न बनकर सिर्फ पूजा की प्रेरणा और अनुकरण बन जाए, और बुझा हुआ दीया, जले हुए दीये के चरणों में सिर रखकर बैठ जाये, तो बैठा रहे अनंतकाल तक, उससे कुछ होनेवाला नहीं है। प्रेरणा का अर्थ है चुनौती । जहां भी कुछ दिखाई पड़ता हो वहां से यह चुनौती मिलनी ही चाहिए कि यह मेरे भीतर क्यों नहीं हो सकता है ? इस जगत में जो एक व्यक्ति के भीतर भी हुआ है, वह मेरे भीतर क्यों नहीं हो सकता है? सब उपकरण मौजूद हैं। वह हृदय मौजूद है, जो मीरा का गीत बन जाये । वह बुद्धि मौजूद है, जो बुद्ध की प्रज्ञा बन जाये । वह शरीर मौजूद है, जिस शरीर के भीतर लोगों ने परमात्मा को पा लिया है। वह आंख मौजूद है, जिससे दृश्य ही नहीं, अदृश्य भी दिखाई पड़े ! वह कान मौजूद हैं, जिनसे बाहर के संगीत ही नहीं, भीतर के नाद भी कबीर ने सुन लिये। लेकिन अगर कबीर भीतर के नाद सुन सकते भीतर के नाद क्यों नहीं सुन सकता हूं? मैं प्रेरणा का अर्थ है, चुनौती | प्रेरणा का अर्थ है, जायें सब तरफ, खोजें सब तरफ । जिन्होंने भी ऊंचाइयां छुई हों, उनको देखें । जिन्होंने गहराइयां पाई हों, उनको देखें। और अपने पैरों के नीचे देखें कि आप कहां खड़े हैं। इन ऊंचाइयों और इन गहराइयों में आपका जाना भी हो सकता है। बस, इससे ज्यादा प्रेरणा का और कोई अर्थ नहीं है। अगर इससे ज्यादा अर्थ आप लेते हैं तो प्रेरणा नहीं रह जाती, फिर वह अनुगमन बन जाती है, फिर वह अनुसरण हो जाती है, फिर वह फालोइंग हो जाती है। और फिर आप अंधे ही बनते हैं, आंख वाले नहीं बन पाते। हां, अंधे बनने से बचने की जरूरत है। अंधा आदमी परमात्मा को नहीं खोज पायेगा। अंधा आदमी टटोलता ही रहेगा किसी के पीछे और भटकता रहेगा । और किसी के पीछे भटक कर सत्य कैसे मिल सकता है ? सत्य भीतर है, चोट पड़ने दें। महावीर की, बुद्ध की, कृष्ण की, क्राइस्ट की, जिसकी भी चोट पड़ती हो, पड़ने दें। जिनसे चुनौती मिलती हो, ले लें! और चुनौती के लिए धन्यवाद भी दे दें। लेकिन सीखें, वह नहीं जो देखा है, सीखें वह, जो मेरे भीतर हो सकता है। इन सब में फर्क को समझ लें। सीखें मत दूसरे से, जो उसके भीतर हो गया है। सीखें केवल इतना ही कि उसके भीतर जो हो सका वह मेरी भी पोटेंशियलिटी है। वह मेरा भी बीज है । वह मेरे भीतर भी हो सकता है। एक बीज को रखें एक वृक्ष के पास, बीज को पता भी नहीं चलता कि इतना बड़ा वृक्ष मेरे भीतर भी छिपा हो सकता है। लेकिन बीज अगर एक वृक्ष को देख ले और उस वृक्ष से पूछे कि तुम इतने बड़े वृक्ष हो गए, क्या तुम इतने ही बड़े थे सदा ? तो वह वृक्ष कहेगा, बीज था तेरे ही जैसा कभी, और ऐसा ही मैंने भी वृक्षों से पूछा था कि इतने बड़े कैसे हो गए हो ! संन्यास (प्रश्नोत्तर) Jain Education International For Personal & Private Use Only 223 www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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