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________________ एक यात्री चीन गया था। वह एक मोनेस्ट्री के पास से गुजर रहा था, एक पहाड़ पर बसे हुए आश्रम के पास से। उसने अपने गाइड से पूछा कि ऊपर जो आश्रम दिखायी पड़ता है पर्वत पर, वहां साधु रहते होंगे? तो उस गाइड ने कहा, माफ कीजिए, आप बड़े पुराने बुद्धि के आदमी मालूम पड़ते हैं, वहां कम्युनिस्ट पार्टी का दफ्तर है। साधु अब वहां नहीं रहते। पहले रहते थे, लेकिन वे शोषक दिन समाप्त हुए। अब उन शोषकों की कोई जगह नहीं है चीन में, अब वहां कम्युनिस्ट पार्टी का दफ्तर है। बुद्ध की जगह माओ को बिठा दिया जाएगा, आश्रमों की जगह कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर हो जायेंगे। कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तरों में ऐसा कुछ बुरा नहीं है, माओ की तस्वीर में ऐसा कुछ बुरा नहीं है, लेकिन जिस जगह उसे रखा जा रहा है उसमें जगत बहुत कुछ खो देगा। कहां बुद्ध, कहां माओ! कहां बुद्ध के जीवन का आनंद, कहां बुद्ध के जीवन की करुणा और प्रेम, कहां बुद्ध की ऊंचाइयां, कहां बुद्ध के चित्त पर उतरा हुआ निर्वाण, कहां बुद्ध के एक-एक वचन का अमृत, कहां माओ! उससे कोई भी तुलना नहीं, उससे कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन यह हो रहा है, यह सारी दुनिया में होगा। यह कलकत्ते में हो रहा है, यह बंबई में होगा। कलकत्ता की दीवालों पर लिखा हुआ है जगह-जगह कि चीन के अध्यक्ष माओ हमारे भी अध्यक्ष हैं। कलकत्ता और बंबई में बहुत फासला नहीं है। और जो हाथ कलकत्ते की दीवालों पर लिख रहे हैं उन हाथों में और बंबई के हाथों में बहुत फर्क मुझे दिखायी नहीं पड़ता। इस जगत से धर्म का फूल तिरोहित हो जाएगा अगर कोई ऐसा चाहता हो कि संन्यास की पुरानी धारणा से चिपके रहना चाहिए। अगर इस जगत में धर्म के फूल को बचाना हो तो संन्यास की नई धारणा को जन्म देना जरूरी है। ओशो, संस्था और संघ के संदर्भ में एक प्रश्न आया है। महावीर जैसी आत्माएं दूसरे किसी का अनुगमन न करके स्वयं को खोजते-खोजते ही स्वयं को उपलब्ध हुईं। यह बात बिलकुल सही मालूम पड़ती है, फिर भी महावीर ने साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के चतुर्विध संघ की रचना करके क्या एक संगठन की रचना नहीं की? क्या यह संघ-रचना सीधे रूप में अनुकरण नहीं बन गई? महावीर का उनके पीछे क्या मतलब रहा होगा? क्या आपके पास भी ठीक महावीर जैसे ही संन्यासी और संगठन का निर्माण नहीं हो रहा है? कृपया संक्षेप में स्पष्ट करें। शब्दों की अपनी यात्राएं हैं। पच्चीस सौ साल पहले जिस शब्द का जो अर्थ था, आज उस शब्द का वही अर्थ नहीं है। इससे बड़ी भ्रांति पैदा होती है। महावीर ने जिसे संघ कहा था और हम जिसे संघ कहते हैं, उसमें बड़ा फर्क पड़ गया है। महावीर संघ किसी संस्था को नहीं कहते थे। महावीर संघ कहते थे कुछ समान-चेता, कुछ एक से संगीत अनुभव संन्यास (प्रश्नोत्तर) 217 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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