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इस मुल्क की एक व्यवस्था थी कि पच्चीस साल तक के विद्यार्थी को हम जंगल में रखते थे और पचहत्तर साल के बाद जो बूढ़े संन्यासी थे उनको भी जंगल में रखते थे। और जो पचहत्तर साल के बूढ़े संन्यासी थे वे जंगल में गुरु का काम कर देते थे, शिक्षक का। और जो पच्चीस साल के युवा जंगलों में पढ़ने आते थे वे विद्यार्थी का काम कर देते थे। हम पहली पीढ़ी की आखिरी पीढ़ी से मुलाकात करवा देते थे, उन दोनों के बीच डायलॉग हो जाता था, उन दोनों के बीच संबंध हो जाता था। सत्तर साल, पचहत्तर साल का बूढ़ा, पांच और दस साल के बच्चों से मुलाकात ले लेता था। सत्तर-पचहत्तर साल में जो उसने जिंदगी से जाना और सीखा उससे उन्हें परिचित करा देता था। ___ बहुत कुछ चीजें हैं जो युनिवर्सिटीज में नहीं सीखी जातीं, सिर्फ जिंदगी के अनुभव में ही सीखी जाती हैं। जिस दिन से हमें यह खयाल पैदा हो गया कि सारा ज्ञान विश्वविद्यालय से मिल सकता है, उस दिन से दुनिया में ज्ञान तो बहुत मिला, लेकिन विज़डम, प्रज्ञा बहुत कम होती चली गई। युनिवर्सिटीज में ज्ञान भले मिल जाये, पर प्रज्ञा, विज़डम नहीं मिलती है। विजडम तो जिंदगी की ठोकरों और टक्करों और संघर्षों में ही मिलती है। वह तो जिंदगी से गुजर कर ही मिलती है।
तो हम अपने सबसे ज्यादा बूढ़े व्यक्ति को अपने सबसे ज्यादा छोटे बच्चे से मिला देते थे। ताकि दोनों पीढ़ियां, आती हुई और विदा होती पीढ़ी, डूबता हुआ सूरज उगते हुए सूरज से मुलाकात कर जाये और जो बारह घंटे की यात्रा पर उसने पाया है वह उगते हुए सूरज को दे जाये। वह संबंध टूट गया है। उससे खतरनाक परिणाम हुए हैं। पीढ़ियों के बीच फासला बढ़ गया है। बूढ़े और बच्चों के बीच कोई डायलॉग नहीं है, बूढ़े और बच्चों के बीच कोई बातचीत नहीं है। बूढ़े की भाषा न बच्चे समझते हैं, न बच्चे की भाषा बूढ़े समझ पाते हैं। बूढ़े बच्चों पर नाराज हैं, बच्चे बूढ़ों पर हंस रहे हैं। यह उनकी नाराजगी का ढंग है। अगर जीवन में एक तारतम्य न रह जाए और जीवन में पीढ़ियां इस तरह दुश्मन की तरह खड़ी हो जायें तो जिंदगी एक अराजकता बन जाती है। उस जिंदगी से सारा संगीत खो जाता है।
मेरी दृष्टि में है कि एक तो वे संन्यासी जो अपने घरों में अपनी जिम्मेवारियों के बीच में संन्यासी होंगे। लेकिन कल उनमें से बहुत से लोग जिम्मेवारियों से बाहर हो जायेंगे। बहुत से लोग तो आज भी जिम्मेवारियों के बाहर हैं। जिन पर कोई जिम्मेवारी नहीं है, वे घरों में बोझ भी हो जाते हैं। क्योंकि जो सदा से काम से भरे रहे हैं, खाली होना उन्हें बहुत मुश्किल होता है। तब वे बेकाम के काम करने लगते हैं, जिनसे दूसरों के काम में बाधा पड़नी शुरू हो जाती है। उन्हें जिंदगी की भीड़ और बाजार को छोड़कर जरूर आश्रम की दुनिया में चले जाना चाहिए। वहां वे साधना भी करें, ध्यान भी करें, परमात्मा को भी खोजें और गांव के बच्चों को–जो उनके पास कभी महीने दो महीने के लिए आकर बैठते रहें, ज्यादा देर भी बिठाये जा सकते हैं-शिक्षित बनायें। क्योंकि मैं तो मानता ही यही हूं कि ऐसे आश्रम ही युनिवर्सिटीज बन जाने चाहिए। और इन बच्चों को अपना सारा सब-कुछ दे जायें, जो उन्होंने जाना है।
संन्यास (प्रश्नोत्तर) 215
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