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जो आदमी पात्रता के सर्टिफिकेट लेकर परमात्मा के पास जायेगा, शायद उसके लिए परमात्मा के दरवाजे नहीं खुलेंगे। लेकिन जो दरवाजे पर अपने आंसू लेकर खड़ा हो जायेगा,
और कहेगा कि मैं अपात्र हूं, मेरी कोई भी तो पात्रता नहीं है कि द्वार खुलवाने के लिए कहूं; लेकिन फिर भी प्यास है, आकांक्षा है; फिर भी लगन है, भूख है; फिर भी दर्शन की अभीप्सा है; दरवाजे उसके लिए खुलते हैं।
तो मेरे पास कोई आकर संन्यास के लिए कहता है, तो काफी है, मैं कभी उसकी पात्रता नहीं पूछता। क्योंकि जो संन्यासी होना चाहता है, इतनी उसकी इच्छा क्या काफी नहीं है? जो संन्यासी होना चाहता है, इतनी उसकी प्यास, उसकी प्रार्थना क्या काफी नहीं है? क्या इतनी लगन, अपने को दांव पर लगाने की इतनी हिम्मत काफी नहीं है? और पात्रता क्या होगी? प्यास के अतिरिक्त, और प्रार्थना के अतिरिक्त आदमी कर क्या सकता है? अपने को छोड़ने के अतिरिक्त, समर्पण के अतिरिक्त, सरेंडर के अतिरिक्त आदमी कर क्या सकता है? लेकिन समर्पण के लिए भी कोई पात्रता चाहिए होती है?
पात्र समर्पण नहीं कर पायेंगे; क्योंकि वे समझते हैं कि वे अधिकारी हैं। लेकिन जिन्हें अपनी अपात्रता का पूरा बोध है, वे समर्पण कर पाते हैं। परमात्मा के द्वार पर जो असहाय हैं, अपात्र हैं, दीन हैं, अयोग्य हैं, लेकिन फिर भी जिनका हृदय प्रार्थना से भरा है, उनके लिए परमात्मा का द्वार सदा ही खुला है। लेकिन जो पात्र हैं, सर्टिफाइड हैं, योग्य हैं, काशी से उपाधियां ले आए हैं, शास्त्रों के ज्ञाता हैं, तपश्चर्या के धनी हैं, उपवासों की फेहरिस्त जिनके पास है कि उन्होंने इतने उपवास किए हैं, ऐसे व्यक्ति अपने अहंकार को ही भर लेते हैं। और अहंकार से बड़ी अपात्रता कुछ भी नहीं है।
सभी स्वयं को पात्र समझनेवाले लोग अहंकार से भर जाते हैं। सिर्फ अपने को अपात्र समझनेवाले लोग ही निरहंकार की यात्रा पर निकल पाते हैं। इसलिए मैं उनसे उनकी पात्रता नहीं पूछ सकता हूं। फिर मैं उनका गुरु नहीं हूं, जो उनसे उनकी पात्रता पूछं। वे मेरे पास सिर्फ इसलिए आए हैं कि मैं उनका गवाह बन जाऊं। इस संबंध में दो-तीन बातें और कहूं। शायद कल इस बाबत और भी आपसे बात करूंगा तो साफ हो सकेगी। ___ संन्यास मेरे लिए व्यक्ति और परमात्मा के बीच सीधे संबंध का नाम है। उसमें कोई बीच में गुरु नहीं हो सकता। संन्यास व्यक्ति का सीधा समर्पण है। उसके बीच में किसी के मध्यस्थ होने की कोई भी जरूरत नहीं। और परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। और एक आदमी उसके लिए समर्पित होना चाहे, तो समर्पित हो सकता है। और फिर अपात्र समर्पण से पात्र बनना शुरू हो जाता है। और फिर अपात्र संकल्प. समर्पण. प्रार्थना से पात्र बनना शरू हो जाता है।
संन्यासी सिद्ध नहीं है, संन्यासी तो सिर्फ संकल्प का नाम है, कि वह सिद्ध होने की यात्रा पर निकला है। संन्यासी तो सिर्फ यात्रा का प्रारंभ-बिंदु है, अंत नहीं है। वह तो सिर्फ शुभारंभ है। वह तो मील का पहला पत्थर है, मंजिल नहीं है। लेकिन मील के पहले पत्थर पर खड़े आदमी से पूछे, जिसने अभी पहला कदम भी नहीं उठाया, उससे पूछे कि मंजिल
अचौर्य (प्रश्नोत्तर)
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