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________________ लगता है, और न बदलता हुआ साक्षी ब्रह्म मालूम पड़ने लगता है। तब आप अपने भी पार उठ जाते हैं-बियांड योरसेल्फ-अपने भी पार चले जाते हैं। और जब कोई अपने भी पार चला जाता है, तभी परमात्मा में प्रवेश है। एक सवाल और पूछ लें। ओशो, आपने कहा है कि बाहर से व्यक्तित्व और चेहरे आरोपित कर लेना सूक्ष्म चोरी है तथा इससे पाखंड और अधर्म का जन्म होता है। लेकिन देखा जा रहा है कि आजकल आपके आस-पास अनेक नये-नये संन्यासी इकट्ठे हो रहे हैं और बिना किसी विशेष तैयारी व परिपक्वता के आप उनके संन्यास को मान्यता दे रहे हैं। क्या इससे आप धर्म को भारी हानि नहीं पहुंचा रहे हैं? कृपया इसे समझाइए। पहली बात, अगर कोई व्यक्ति मेरे जैसा होने की कोशिश करे, तो मैं उसे रोकूगा; उसे मैं कहूंगा कि मेरे जैसा होने की कोशिश आत्मघात है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति स्वयं जैसा होने की कोशिश की यात्रा पर निकले, तो मेरी शुभकामनाएं उसे देने में मुझे कोई हर्ज नहीं है। जो संन्यासी चाहते हैं कि मैं परमात्मा के मार्ग पर उनकी यात्रा का गवाह बन जाऊं, विटनेस बन जाऊं, उनका गवाह बनने में मुझे कोई एतराज नहीं है। लेकिन मैं गुरु किसी का भी नहीं हूं। मेरा कोई शिष्य नहीं है। मैं सिर्फ गवाह हूं। अगर कोई मेरे सामने संकल्प लेना चाहता है कि मैं संन्यास की यात्रा पर जा रहा हूं, तो मुझे गवाह बन जाने में कोई एतराज नहीं है। लेकिन अगर कोई मेरा शिष्य बनने आये, तो मुझे भारी एतराज है। तो मैं किसी को शिष्य नहीं बना सकता हूं, क्योंकि मैं कोई गुरु नहीं हूं। अगर कोई मेरे पीछे चलने आये, तो मैं उसे इनकार करूंगा; लेकिन कोई अगर अपनी यात्रा पर जाता हो और मुझसे शुभकामनाएं लेने आये, तो शुभकामनाएं देने की भी कंजूसी मैं करूं, ऐसा संभव नहीं है। मैं गैरिक वस्त्र नहीं पहनता हूं। मैंने गले में कोई माला नहीं पहनी है। ये जो संन्यासी आपको दिखाई पड़ रहे हैं, इनमें मेरी नकल का कोई कारण नहीं है। फिर यह भी पूछते हैं आप कि किसी को भी बिना उसकी पात्रता का खयाल किये मैं उसके संन्यास को स्वीकार कर लेता हूं? ___ जब परमात्मा ने ही हम सब को हमारी बिना किसी पात्रता के स्वीकार किया है, तो मैं अस्वीकार करने वाला कौन हो सकता हूं? हम सबकी पात्रता क्या है जीवन में? और संन्यास के लिए एक ही पात्रता है कि आदमी अपनी अपात्रता को पूरी विनम्रता से स्वीकार करता है। इसके अतिरिक्त कोई पात्रता नहीं है। अगर कोई आदमी कहता है कि मैं पात्र हूं, मुझे संन्यास दें, तो मैं हाथ जोड़ लूंगा; क्योंकि जो पात्र है उसको संन्यास की कोई जरूरत ही नहीं है। और जिसे यह खयाल है कि मैं पात्र हूं, तो वह संन्यासी नहीं हो पायेगा। क्योंकि संन्यास विनम्रता का फूल है। वह ह्यूमिलिटी का फूल है। वह विनम्रता में खिलता है। 202 ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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