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________________ नहीं, धार्मिक व्यक्ति अगर घृणा अनुभव करता है, तो उसके पास दो ही उपाय हैं : या तो वह घृणा अनुभव न करे तो मुस्कुराये; और अगर घृणा ही अनुभव करनी है, तो कृपा करके मुस्कुराये न, घृणा ही अपने चेहरे से प्रकट कर दे। इसके दो फायदे हैं। यदि वह घृणा अपने चेहरे से प्रकट कर दे, तो घृणा प्रकट करने से जो नुकसान उठाने हैं, वे तो उठाने पड़ेंगे। वे नुकसान उठाने की हिम्मत होनी चाहिए। घृणा प्रकट कर देने से जो नुकसान उठाने पड़ेंगे, घृणा की जो पीड़ा अनुभव करनी पड़ेगी, वही पीड़ा, वही हानि उसे घृणा को बदलने का कारण बनेगी। अन्यथा वह बदलेगा क्यों? जिंदगी में जो नुकसान होंगे घृणा से, जिंदगी में जो बाधा पड़ेगी घृणा से, वही तो कारण बनेगी उसे इस बात के लिए सोचने के लिए मजबूर करने वाली कि वह अपनी घृणा को बदले। क्योंकि घृणा जीवन को नर्क में डाले दे रही है। लेकिन हम मुस्कुराहट बताकर बाहर स्वर्ग बनाने की कोशिश करते हैं, और भीतर नर्क निर्मित होता चला जाता है। फिर उस नर्क को हम मिटायेंगे कैसे? जिस नर्क की पीड़ा को हम पूरा अनुभव नहीं करते और भीतर छिपा लेते हैं, तो वह पीड़ा मिटने के बाहर हो जाती है। और एक और मजे की बात है कि जब भीतर घृणा होती है, तो आपके ओंठों की मुस्कुराहट से आप ही सोचते होंगे कि आपने मुस्कुराकर दूसरे का स्वागत किया। लेकिन जब भीतर घृणा होती है, तो ओंठों पर आई हुई मुस्कुराहट बिलकुल जहरीली हो जाती है, और दूसरा उसे अच्छी तरह देख पाता है कि वह मुखौटा है। बाहर हंस सकते हैं आप, लेकिन भीतर की घृणा को प्रकट होने से रोकना बहुत मुश्किल है। वह प्रकट हो जाती है। होंठ से, आंख से, उठने से, बैठने से, वह सब तरह से प्रकट हो जाती है। ___इसलिए जो झूठी मुस्कुराहट थी वह सिर्फ दबाने का काम करती है, उससे कोई कम्युनिकेशन, उससे कोई संदेश नहीं पहुंच पाता। उससे दूसरा प्रसन्न नहीं लौटता है। और कई बार तो दूसरा आदमी इस बात से प्रसन्न ही होगा कि आप एक ऑथेंटिक और प्रामाणिक आदमी हैं। अगर आपको क्रोध है किसी पर, तो स्पष्ट कह दें कि मुझे क्रोध है, और मैं क्रोधी आदमी हूं। और क्रोध कर लें, और क्रोध की पीड़ा को भोग लें, और क्रोध के परिणाम झेल लें, तो आज नहीं कल, यह क्रोध की अग्नि ही आपको क्रोध के बाहर ले जाने का कारण बनेगी। अन्यथा भीतर क्रोध होगा, बाहर हंसी होगी; और धीरे-धीरे वह क्रोध भीतर इकट्ठा होकर जलाता रहेगा; और बाहर झूठी हंसी, सूखी हंसी, व्यर्थ हंसी फैलती रहेगी निष्परिणाम, बिना किसी परिणाम के। कोई उस हंसी से प्रसन्न नहीं होगा। कोई उस हंसी से आनंदित नहीं होगा। क्योंकि लोग हंसी से आनंदित नहीं होते। हंसी के पीछे पूरा व्यक्तित्व हंसना चाहिए, तभी वह हंसी किसी दूसरे के हृदय को छू पाती है। हंसी के साथ पूरे प्राण हंसने चाहिए, तभी उस हंसी में जीवन होता है। हंसी के साथ सब रोआं-रोआं हंसना चाहिए, तभी उस हंसी में अमृत का वरदान होता है, अन्यथा नहीं होता है। यह जो हम मुखौटे लगाते हैं, धार्मिक व्यक्ति इन्हीं मुखौटों को उतारने की बात करता है। इसलिए अचौर्य का अर्थ है, ऐसे मुखौटे छोड़ना है। कठिनाई तो होगी, क्योंकि धर्म अचौर्य (प्रश्नोत्तर) 197 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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