________________
ही साथ, एक बात और कह दूं कि एक बंसी, जिसकी छाती छिदी हुई है, लेकिन उसकी स्वर-लहरी लोगों पर सम्मोहन डाल देती है। क्या वह बांसुरी का मुखौटा नहीं है? पैर की पायल, जिसकी छाती में कंकड़ गड़े हुए हैं, लेकिन जिससे उसकी झंकार निकलती है, जिससे उसमें संगीत उत्पन्न होता है, क्या वह पायल का मुखौटा नहीं है? अगर यही बात है, तो इन दोनों में भेद तो करना पड़ेगा। और इन दोनों का भेद, मैं आपसे प्रार्थना करूंगा, कि आप समझायें कृपा करके। और साथ ही साथ एक बात और कि यदि जीवन एक विराट अंतर-संबंध है, तो व्यक्तित्व अनेक रूपों में, विधाओं में प्रकट होगा। व्यक्तित्व की इस विभिन्नता को आप नकली मुखौटे कैसे कह सकेंगे?
बालक पैदा हुआ। इस जन्म का नहीं, जन्म-जन्मांतर का संस्कार लेकर साथ में आया। मां से उसे प्रेम मिला, वात्सल्य मिला; पिता से उसे ज्ञान मिला, रास्ता मिला, मार्ग मिला; शिक्षक से उसे वाणी समझने को मिली, विचार करने के लिए प्रेरणा मिली; और संसार में जहां-जहां वह घूमा, उसने कई अनुभव प्राप्त किए। वह प्राप्त अनभव भी क्या चोरी की श्रेणी में आ जायेंगे? और यदि ऐसा हुआ, तो यह व्यक्तित्व कटकर अलग हो जायेगा। वह संस्कार बनाकर अपना निजी व्यक्तित्व फिर कैसे पैदा कर पायेगा, जब तक कि दूसरे व्यक्तित्वों से कुछ न कुछ अनुभव ग्रहण न करे? ये दो प्रश्न मैं आपके सामने रखता हूं।
मुखौटे का, मास्क का, शायद अर्थ ठीक से समझ में नहीं आ सका। आपके मुंह का नाम मुखौटा नहीं है। जब आप अपने मुंह पर नाटक में एक दूसरा मुख लगा लेते हैं-समझें, रावण का मुंह लगा लेते हैं तब वह लगाया हुआ मुंह, मुखौटा है। आपका चेहरा मुखौटा नहीं है, लेकिन अपने चेहरे पर जब आप कोई दूसरा नकली चेहरा लगा लेते हैं, जिसकी कोई जड़ें आपके भीतर नहीं होतीं, जिससे आपके प्राणों का कोई भी संबंध नहीं होता, सिर्फ धागे से कान में लटका होता है जो, जिसका हृदय की धड़कन से कोई भी सेतु नहीं होता, तब वह मुखौटा है। मुंह का नाम मुखौटा नहीं है। मुखौटा झूठे मुंह का नाम है, फाल्स फेस का नाम है। पहले तो मुखौटे का ठीक अर्थ समझ लें।
चेहरा मुखौटा नहीं है। लेकिन जरूरी नहीं है कि आप कागज के या प्लास्टिक के बने हए मखौटे लगायें, तब झठा चेहरा पैदा हो। आप इसी चेहरे पर बहत से झठे चेहरे पैदा करने में सफल हो जाते हैं। जैसे कहा कि किसी आदमी से मेरी घृणा है, और वह मेरे पास आता है, तब मैं मुस्कुराकर उसका स्वागत करता हूं, पर भीतर घृणा उबलती है। तब यह मुखौटा है। और यह मुखौटा बड़ा खतरनाक है। यह मुखौटा उपयोगी मालूम होता है। इसकी यूटिलिटी दिखायी पड़ती है। इस भांति मैं उस आदमी को अपनी घृणा बताने से अपने को रोक लेता हूं। लेकिन घृणा इससे मिटती नहीं। और खतरा यही है कि मैं उस आदमी को तो धोखा दूंगा ही, धीरे-धीरे मैं अपने को भी धोखा दे लूंगा। और बार-बार झूठी मुस्कुराहट मेरी घृणा को भीतर दबाती जायेगी। और एक दिन मैं भी भूल जाऊंगा कि मैं उसे घृणा करता हूं। बाहर हंसता रहूंगा और भीतर मेरी घृणा छिपी रहेगी।
196
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org