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दूसरा इसलिए दिखाई पड़ता है कि मैं अभी नहीं हूं। यह शायद खयाल में नहीं आयेगा एकदम से। मैं नहीं हूं, मुझे मेरा कोई पता नहीं है। इस मेरे न होने को, इस मेरे पता न होने को, इस मेरे आत्म-अज्ञान को मैंने दूसरे का ज्ञान बना लिया है। हम दूसरे को देख रहे हैं, क्योंकि हम अपने को देखना नहीं जानते। और देखना तो पड़ेगा ही। देखने की दो संभावनाएं हैं : या तो वह अदर डायरेक्टेड हो, दूसरे की तरफ हो तीर देखने का; या इनर डायरेक्टेड हो, अंतर की ओर तीर हो। इनर एरोड या अदर एरोड हो। दूसरे को देखें या अपने को देखें, ये देखने के दो विकल्प हैं। ये देखने के दो डाइमेन्शन हैं। चूंकि हम अपने को देख ही नहीं सकते, देख ही नहीं पाते, देखा ही नहीं, हम दूसरे को ही देखते रहते हैं। दूसरे का होना आत्म-अज्ञान से पैदा होता है। असल में ध्यान के डायमेंशन हैं।
एक युवक हॉकी के मैदान में खेल रहा है, पैर में चोट लग गई, खून बह रहा है। हजारों दर्शकों को दिखाई पड़ रहा है कि पैर से खून बह रहा है, सिर्फ उसे पता नहीं है। क्या हो गया है उसको? होश में नहीं है? होश में पूरा है, क्योंकि गेंद की जरा-सी गति भी, छोटी-सी गति भी उसे दिखाई पड़ रही है। बेहोश है ? बेहोश बिलकुल नहीं है, क्योंकि दूसरे खिलाड़ियों का जरा-सा मूवमेंट, जरा-सी हलचल उसकी आंख में है। बेहोश वह नहीं है, क्योंकि खुद को पूरी तरह संतुलित करके वह दौड़ रहा है। लेकिन यह पैर से खून गिर रहा है, यह दिखाई क्यों नहीं पड़ रहा है? यह उसे पता क्यों नहीं चल रहा है?
उसकी सारी अटेंशन अदर डायरेक्टेड है। उसकी चेतना इस समय वन-डायमेंशनल है। वह बाहर की दिशा में लगी है। वह खेल में व्यस्त है। वह इतने जोर से व्यस्त है कि चेतना का टुकड़ा भी नहीं बचा है जो भीतर की तरफ जा सके। सब बाहर चेतना बह रही है। खेल बंद हो गया है, वह पैर पकड़ कर बैठ गया है और रो रहा है! और कह रहा है, बहुत चोट लग गई! मुझे पता क्यों नहीं चला?
आधा घंटा वह कहां था? आधा घंटा भी वह था, लेकिन दूसरे पर केंद्रित था। अब लौट आया अपने पर। अब उसे पता चल रहा है कि पैर में चोट लग गई, दर्द है, पीड़ा है। अब उसका ध्यान अपने शरीर की तरफ गया। लेकिन गहरे में वह अभी भी अदर डायरेक्टेड है। अभी भी ध्यान उसका शरीर पर गया है। वह भी दूसरा ही है। वह भी बाहर ही है। अभी भी उसे पता चल रहा है कि पैर में दर्द हो रहा है। अभी भी उसे 'उसका' पता नहीं चल रहा है जिसे पता चल रहा है कि दर्द हो रहा है। अभी उसका उसे कोई पता नहीं। अभी भी उसका उसे कोई पता नहीं है। अभी और भीतर की भी यात्रा संभव है। अभी वह बीच में खड़ा है। दूसरा बाहर है, मैं भीतर हूं, और दोनों के बीच में मेरा शरीर है। हमारी यात्रा, या तो दूसरा या अपना शरीर–इनके बीच होती रहती है। हमारी चेतना इनके बीच डोलती रहती है। या तो हम दूसरे को जानते हैं या अपने शरीर को जानते हैं, वह भी दूसरा है।
असल में अपने शरीर का मतलब केवल इतना है कि हमारे और दूसरे के बीच संबंधों के जो तीर हैं, तट हैं, जहां हमारी चेतना की नदी बहती रहती है, वह मेरा शरीर और आपका शरीर इनके बीच बहती रहती है। आपसे भी मेरा मतलब आपसे नहीं है, क्योंकि जब मेरा
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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