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बल्कि अब यह हो सकता है कि वह धर्म के हित में ही मंदिर में आग लगा दे। ठीक यही मस्जिद के साथ हिंदू कर सकता है। ठीक यही सारे दुनिया के समाज एक-दूसरे के साथ कर रहे हैं।
समाज का मतलब है अपनों की भीड़। और दुनिया में तब तक हिंसा मिटानी मुश्किल है जब तक हम अपनों की भीड़ बनाने की जिद बंद नहीं करते। अपनों की भीड़ का मतलब है कि यह भीड सदा परायों की भीड के खिलाफ खडी होगी। इसलिए दनिया के सबसे हिंसात्मक होते हैं। दुनिया का कोई संगठन अहिंसात्मक नहीं हो सकता। संभावना नहीं है अभी, शायद करोड़ों वर्ष लग जायें। जब पूरा मनुष्य रूपांतरित हो जाये तो शायद कभी अहिंसात्मक लोगों का कोई मिलन हो सके। ___अभी तो सब मिलन हिंसात्मक लोगों के हैं, चाहे परिवार हो। परिवार दूसरे लोगों के खिलाफ खड़ी की गई इकाई है। परिवार बायोलॉजिकल यूनिट है। जैविक इकाई है, दूसरी जैविक इकाइयों के खिलाफ। समाज, दूसरे समाजों के खिलाफ सामाजिक इकाई है। राज्य, दूसरे राज्यों के खिलाफ राजनैतिक इकाई है। ये सब इकाइयां हिंसा की हैं। मनुष्य उस दिन अहिंसक होगा जिस दिन मनुष्य निपट व्यक्ति होने को राजी हो। __इसलिए महावीर को जैन नहीं कहा जा सकता, और जो कहते हों, वे महावीर के साथ अन्याय करते हैं। महावीर किसी समाज के हिस्से नहीं हो सकते। कृष्ण को हिंदू नहीं कहा जा सकता, और जीसस को ईसाई कहना निपट पागलपन है। ये व्यक्ति हैं, इनकी इकाई ये खुद हैं। ये किसी दूसरी इकाई के साथ जुड़ने को राजी नहीं हैं।
संन्यास समस्त इकाइयों के साथ जुड़ने से इनकार है। असल में संन्यास इस बात की खबर है कि समाज हिंसा है, और समाज के साथ खड़े होने में हिंसक होना ही पड़ेगा। अपनों का चेहरा, हिंसा का सूक्ष्मतम रूप है। __इसलिए प्रेम जिसे हम कहते हैं वह भी अहिंसा नहीं बन पाता। अपना जिसे कहते हैं वह भी 'मैं' नहीं हूं। वह भी दूसरा है। अहिंसा उस क्षण शुरू होगी जिस दिन दूसरा नहीं है; द अदर इज़ नॉट। यह नहीं कि वह अपना है। वह है ही नहीं। लेकिन यह क्या बात है कि दूसरा, दूसरा दिखाई पड़ता है। होगा ही दूसरा, तभी दिखाई पड़ता है।
नहीं, जैसा दिखाई पड़ता है वैसा हो ही, ऐसा जरूरी नहीं है। अंधेरे में रस्सी भी सांप दिखाई पड़ती है। रोशनी होने से पता चलता है कि ऐसा नहीं है। खाली आंखों से देखने पर पत्थर ठोस दिखाई पड़ता है। विज्ञान की गहरी आंखों से देखने पर ठोसपन विदा हो जाता है। पत्थर सब्स्टेंशिअल नहीं रह जाता। असल में पत्थर पत्थर ही नहीं रह जाता। पत्थर मैटीरियल ही नहीं रह जाता। पत्थर पदार्थ ही नहीं रह जाता, सिर्फ एनर्जी रह जाता है। नहीं, जैसा दिखाई पड़ता है वैसा ही नहीं है। जैसा दिखाई पड़ता है वह हमारे देखने की क्षमता की सूचना है सिर्फ। दूसरा है, इसलिए दिखाई पड़ता है ? नहीं, दूसरे के दिखाई पड़ने का कारण दूसरे का होना नहीं है। दूसरे के दिखाई पड़ने का कारण बहुत अदभुत है। उसे समझ लेना जरूरी है। उसे बिना समझे हम हिंसा की गहराई को न समझ सकेंगे।
अहिंसा
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