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________________ इसलिए आप यह मत सोचना कि आपने कौड़ी नहीं चुराई | आप यह मत सोचना कि आपने किसी के घर से सामान नहीं चुराया । उस चोरी से धर्म का क्या लेना-देना है ! उस चोरी से तो आदमी का कानून ही निपट लेता है। धर्म का तो किसी और चोरी से प्रयोजन है, कानून की पकड़ में नहीं आती; जिसका अदालतें निर्णय नहीं कर सकतीं; जो न्यायाधीश की सीमा के बाहर है। धर्म का उस चोरी से संबंध है, जो प्रभावों की चोरी है, व्यक्तित्वों की चोरी है, चेहरों की चोरी है। और हम सब चुराए हुए से जी रहे हैं। हम सब ऐसे जी रहे हैं, जैसे हम कोई और हों। हम हम नहीं हैं। मैं मैं नहीं हूं, किसी और की तरह जी रहा हूं। इस अर्थ में मैंने कहा था कि अचौर्य मनुष्य की आत्मा में निजता की उपलब्धि का मार्ग है, और चोरी मनुष्य की आत्मा के खोने की विधि है । यह भाव के तल पर हो सकती है, विचार के तल पर हो सकती है, शरीर के तल पर हो सकती है। हम चलते तक नहीं अपने जैसे ! हम चलना भी दूसरों से सीख लेते हैं । हम विचार भी नहीं करते अपने जैसा; हम विचार भी दूसरों से सीख लेते हैं ! हम भाव भी नहीं करते अपने जैसा; हम भाव भी दूसरों से सीख लेते हैं! सुबह आदमी अखबार पढ़ लेता है और फिर दिन भर अखबार में पढ़ी बातों की चर्चा लोगों से करता रहता है ! और उसे कभी खयाल नहीं आता कि वह जो बोल रहा है उसमें उसका अपना कुछ भी नहीं है। गीता पढ़ लेता है, फिर जिंदगी भर दोहराये चला जाता है, और कभी नहीं पूछता लौटकर कि मैं जो बोल रहा हूं, उसमें मेरा कुछ भी नहीं ! सब बोलना, सोचना, उठना, बैठना सब सीखा हुआ है। तो ऐसी जिंदगी में आनंद की वर्षा नहीं हो सकती। ऐसी जिंदगी में अमृत की झलक नहीं मिल सकती। ऐसा आदमी रूख मरुस्थल होगा। क्योंकि झरने सदा प्राणों से बहते हैं, जिनमें हरियाली पैदा होती है। और जो उधार झरने में जीता है, वह उस आदमी की तरह है जो दूसरे के मकानों को गिनकर सोचता है कि मेरे हैं; जो दूसरों की आंखों को गिनकर सोचता है कि मेरी हैं; जो दूसरों के विचारों को गिनकर सोचता है कि मैं विवेकवान हो गया; जो शास्त्रों को संगृहीत करके समझता है। कि ज्ञान आ गया ! ऐसा आदमी इतनी बुनियादी भ्रांति में जीता है कि अपने पूरे जीवन को व्यर्थ गंवा सकता है । और हम गंवा देते हैं । लेकिन एक बार यह सवाल हमारे सामने उठ जाये, तो यह सवाल हमारा पीछा करेगा कि मैं चोर तो नहीं हूं ? और अगर यह सवाल हमारा पीछा करने लगे, तो हमें घड़ी-घड़ी दिखायी पड़ने लगेगा कि अभी जो मैं हंस रहा था, वह हंसी मैंने किसी और के ओंठों से सीखी है; कि अभी मैं जो रो रहा था, वे आंसू सच्चे न थे; अभी जो मैंने नमस्कार किया, उस नमस्कार में मेरे प्राणों की कोई आहट न थी; कि अभी जो मैंने प्रेम किया, उसमें प्रेम बिलकुल न था, वह मैंने किसी ड्रामा में पढ़ा था; कि अभी जो मैंने कही अपने प्रेमी से, वह मेरा किसी फिल्म में सुना हुआ डायलॉग था । काश! आदमी की जिंदगी में यह सवाल उठ जाये, तो आदमी आज नहीं कल, चोरी अचौर्य (प्रश्नोत्तर) Jain Education International For Personal & Private Use Only 187 www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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