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________________ 178 ही जाना होगा। आज नहीं कल, आदमी अपनी गलती को, अपने दुख और पीड़ा को समझेगा। और समझेगा कि उसने जिससे स्वर्ग बन सकता था, उससे नर्क बना लिया है। महावीर गरीबी के समर्थक नहीं हैं, महावीर सिर्फ अमीरी की व्यर्थता के उदघोषक हैं। लेकिन ये दोनों बड़ी अलग बातें हैं । और दूसरी बात पूछी है। साथ में पूछा है कि महावीर के अनुयायी तो कभी महावीर की ऊंचाई को न पा सके ! क्राइस्ट की ऊंचाई को ईसाई नहीं पा सके ! बुद्ध की ऊंचाई को बुद्धिस्ट नहीं पा सके ! नहीं पा सके उसका कारण है। क्योंकि अनुयायी कभी ऊंचाई पा ही नहीं सकता; क्योंकि जो आदमी दूसरे के पीछे चलता है, वह अपनी आत्मा को गंवाने का काम करता है। दूसरे के पीछे चलने के लिए अपनी हत्या तो करनी ही पड़ती है। दूसरे का अनुसरण करने के लिए स्वयं के विवेक को तो काटना ही पड़ता है। दूसरे के वस्त्र पहनने के लिए अपने शरीर को छोटा और बड़ा करना ही पड़ता है। दूसरे की आत्मा ओढ़ने के लिए अपनी आत्मा को दबाना ही पड़ता है। अनुयायी कभी ऊंचाई नहीं पा सकता, क्योंकि जिसने अनुयायी होने तय किया है, उसने सुसाइडल निर्णय लिया है, आत्मघाती निर्णय लिया है। मैं नहीं कहता कि महावीर के अनुयायी बनें। मैं नहीं कहता कि जीसस के अनुयायी | महावीर को समझ लें, इतना काफी है, और छोड़ दें; जीसस को समझ लें, इतना काफी है, और छोड़ दें। बनें तो सदा आप आप ही बनें, महावीर बनने का आपके लिए कोई उपाय नहीं है; जीसस बनने का कोई उपाय नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि जीसस जिस ऊंचाई पर पहुंचे उस तक आप न पहुंच सकेंगे। आप भी पहुंच सकेंगे; लेकिन आप ही होकर पहुंच सकते हैं, जीसस की नकल करके नहीं पहुंच सकते। अनुकरण नकल है। और ध्यान रहे ! कार्बन-कापी जो आदमी बनने की कोशिश करता है, वह मूल- कापी की स्पष्टता नहीं पा सकेगा । और फिर हिंदुस्तानी कार्बन तब तो और भी मुश्किल है ! फिर तो कुछ समझ में भी आ जाये, यह भी मुश्किल है कि पीछे क्या है। और फिर सेकेंड कापी हो, तब भी ठीक! महावीर को मरे पच्चीस सौ साल हो गए, पच्चीस सौ साल में हजारों कापियों के बाद आप खड़े हैं ! लाखों कापियां गुजर चुकी, उस कार्बन पर बहुत कापियां हो चुकी ! अब कुछ भी समझ में नहीं आता। लेकिन समझे चले जा रहे हैं, अनुकरण किए चले जा रहे हैं ! अनुयायी कभी भी धार्मिक नहीं होता है। असल में अनुयायी यह कह रहा है कि मैं अपने होने की जिम्मेवारी छोड़ना चाहता हूं। मैं किसी के पीछे चलना चाहता हूं। मैं अंधा होने के लिए तैयार हूं। मैं किसी का हाथ पकड़कर चलूंगा। मुझे कोई कहीं पहुंचा दे। मैं अपने चलने की जिम्मेवारी से इनकार करता हूं। जिस आदमी ने अपनी आंखों से इनकार किया, और जिस आदमी ने अपने पैरों से इनकार किया, और जिस आदमी ने अपने विवेक की जिम्मेवारी लेने से इनकार किया, वह ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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