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अन्यथा वह गांव में घूमकर वापस लौट आयेंगे। वे कहेंगे, परमात्मा की मर्जी नहीं थी तो जाने दो, क्योंकि अपनी अब कोई मर्जी जीवन की नहीं है। न मरने की कोई मर्जी है, न जीने की कोई मर्जी है। अपनी तरफ से, वह जो जिजीविषा है, वह जो लस्ट फार लाइफ है, वह अब नहीं है। अब परमात्मा की मर्जी हो तो रखे, मर्जी हो तो उठा ले।
एक बार ऐसा हुआ कि महावीर महीनों तक गांव में जाते रहे और भिक्षा न मिल सकी, क्योंकि उन्होंने एक शर्त ले ली। अब वह शर्त तो बताई नहीं जाती थी, नहीं तो कोई इंतजाम हो जाता। गांव बहुत से उपाय करता, लेकिन वह शर्त पूरी न होती। अब बड़ी मुश्किल हो गई कि महावीर के मन में क्या है। महावीर ने एक शर्त ले ली कि एक राजकुमारी, जो जंजीरों में बंधी हो, जिसका एक पैर मकान के भीतर और एक पैर मकान के बाहर हो, जिसकी आंखों में आंसू हों और ओंठ पर मुस्कुराहट हो, अगर वह भिक्षा देगी, तो ले लेंगे।
तो फिर महीनों भिक्षा नहीं मिली। नहीं मिली, तो भी वे रोज आनंदित गांव जाते और आनंदित वापस लौट आते। सारा गांव दुखी और पीड़ित है, और सारा गांव रो रहा है, गांव भर में भोजन मश्किल हो गया है। लोग हाथ-पैर जोडते हैं और कहते हैं कि स्वीकार करें। लेकिन महावीर कहते हैं, उसकी मर्जी। ___ महीनों बीत गए। पर एक दिन यह भी हो गया। कारागृह में बंद एक राजकुमारी ने भिक्षा दी। उसकी आंखों में आंसू थे, अपने कारागृह में होने के कारण। ओंठों पर मुस्कुराहट थी, क्योंकि महावीर ने उसकी भिक्षा स्वीकार कर ली थी। वह हंस रही थी। महावीर उसके द्वार पर रुक गए। आंखों में आंसू थे, ओंठ पर मुस्कुराहट थी, एक पैर जंजीरों से बंधा हुआ पीछे था, एक बाहर निकाल पायी थी, क्योंकि एक ही पैर खुला था। महावीर भिक्षा लेकर लौट गए। लेकिन इस भिक्षा के लिए परमात्मा कभी उनको जिम्मेवार नहीं ठहरा सकेगा। अगर कोई जिम्मेवार होगा. तो परमात्मा ही होगा। ___ यह परम सत्ता में समर्पण है, यह संन्यास का...यह संन्यास की परम अंतिम अवस्था है-जहां व्यक्ति एक श्वास भी अपनी तरफ से नहीं लेता। इसलिए महावीर कह सकते हैं कि मेरे कर्मों का अब कोई फल मेरे लिए नहीं है; और मेरे कर्मों का कोई परिणाम अब मुझसे नहीं बंधा है। अब मैं कुछ कर ही नहीं रहा हूं। अब जो हो रहा है, हो रहा है। करना मेरे हाथ में नहीं है। कर मैं नहीं रहा हूं। अब मेरी कोई इच्छा नहीं है।
लेकिन महावीर का यह अपना व्यक्तित्व है। और हम से भूल हो जाती है, जब हम दो व्यक्तियों में तुलना करने लगते हैं। अगर हम जनक और महावीर की तुलना करें, तो कठिनाई हो जायेगी। जनक का अपना आनंद है। महावीर कहते हैं, परमात्मा को रखना होगा, तो रख लेगा किसी भी हाल में। जनक कहते हैं, परमात्मा ने महल दिया है, तो मैं छोड़नेवाला कौन हूं? जनक कहते हैं, परमात्मा ने राज्य दिया, तो मैं छोड़ने की झंझट में भी क्यों पडूं?
कौन ठीक है, कौन गलत है? दोनों का अपना ढंग है परमात्मा को देखने का। दोनों ही ठीक हैं। हजार तरह के लोग हैं। जीसस अपनी तरह के आदमी हैं; बुद्ध अपनी तरह के,
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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