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असल में बच्चे की चेतना के तल और आपकी चेतना के तल में जो फर्क है, वही कठिनाई है। आपको पत्थर दिखाई पड़ रहे हैं, बच्चे को बहुमूल्य दिखाई पड़ रहे हैं। आप फेंकने का आग्रह करते हैं, बच्चा बचाने का आग्रह करता है। महावीर और हमारे बीच भी वही बच्चे और प्रौढ़ वाला फासला है। फिर एक और नई चेतना भी है, जो महावीर को मिली है। यहां इस जगत में हमें जो भी दिखाई पड़ता है, वह महावीर के लिए निर्मूल्य हो गया है, उसका सारा मूल्य खो गया है।
महावीर कुछ छोड़ते नहीं हैं, चीजें छूट जाती हैं। जो व्यर्थ हो गई हैं, उन्हें ढोना असंभव है। महावीर छोड़कर नहीं जाते हैं। वे जाते हैं, और चीजें छूट जाती हैं। जो व्यर्थ हो गया है उसे साथ ढोना संभव नहीं है।
महावीर के बड़े भाई घर रह गए हैं। महावीर के बड़े भाई दुखी हैं कि उनके छोटे भाई ने भूल की; हीरे-जवाहरात, धन-दौलत, यश, सुख-सुविधा, सब छोड़कर चला गया है। इन दोनों के बीच प्रौढ़ और बच्चे के मन का फासला है। महावीर के बड़े भाई दुखी हैं कि दुख उठाने जा रहा है यह! और महावीर तो दुख उठाने नहीं जा रहे, महावीर तो इतने आनंद से भर गए हैं कि अब दुख का कोई उपाय ही नहीं रह गया है।
लेकिन पूछा जा सकता है कि वे वहीं घर पर भी तो रह सकते थे? जैसा मैंने अभी उस सम्राट की बात कही, जो महल में था, लेकिन महल जिसमें नहीं था। महावीर वहां भी रह सकते थे, लेकिन यह व्यक्ति-व्यक्ति के टाइप और प्रकार की बात है।
महावीर नहीं रह सकते थे, कृष्ण रह सकते हैं। जनक रह सकते हैं, बुद्ध नहीं रह सकते। यह व्यक्तियों की बात है; और व्यक्ति परम स्वतंत्रता है। और नियम एक-दूसरे पर नहीं थोपे जा सकते। महावीर के लिए जो संभव था, वह संभव हुआ। महावीर के भीतर जो फूल खिल सकता था, वह खिला। लेकिन इस फूल के खिलने के भी अपने आनंद हैं। महल में, महल के न होकर रहने का अपना आनंद है। महल के बाहर, वृक्ष के नीचे रहने का अपना आनंद है। और दोनों की कोई तुलना नहीं हो सकती, कोई कंपेरिजन नहीं हो सकता। यह व्यक्तियों पर निर्भर करेगा। ___ महावीर जब सब छोड़कर चले गये...और वृक्षों के नीचे बैठना, सोना और भिक्षापात्र लेकर गांव-गांव भटकने में कौन-सा आनंद होगा? इस बात को थोड़ा समझ लेना जरूरी है, क्योंकि अपरिग्रह के तत्व में यह बड़ी कीमती और बड़ी गहरी बात है। __महावीर की समझ ऐसी है कि जब श्वास मैं नहीं लेता, और जन्म मैं नहीं लेता-जन्म अपने से आता है, श्वास अपने से आती है, मृत्यु अपने से आती है तो जीवन की व्यवस्था भी मैं अपने ऊपर क्यों लूं? उसे भी परमात्मा पर छोड़ देते हैं कि वही करेगा व्यवस्था। यह परम आस्तिकता का लक्षण है। यह परम आस्तिकता है. व्यवस्था भी क्यों ।
कल सुबह होगी, सूरज निकलेगा नहीं निकलेगा, तो हमने क्या व्यवस्था की है? कल अगर सुबह सूरज नहीं निकला और रात उसने रेजिगनेशन भेज दिया, इस्तीफा दे दिया, या कल सुबह हड़ताल पर चला गया, स्ट्राइक पर चला गया और कल सुबह नहीं निकला,
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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