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यह एक मालिक की बात है।
आप कंबल को ओढ़े हुए दिखाई पड़ते हैं, इस भूल में मत पड़ना। अक्सर कंबल ही आपको ओढ़े रहता है। आप हीरे-जवाहरात गले में पहने हुए दिखाई पड़ते हैं, इस भूल में मत रहना। अक्सर हीरे-जवाहरात ही आपके गले को पहने रहते हैं। आप बड़े मकान में रहते हैं, इस भूल में मत रहना कि आप बड़े मकान में रहते हैं। मकान आपस में चर्चा करते हैं, तो वे आपस में कहते हैं कि मैं भी किस आदमी के भीतर रह रहा हूं! मकान के भीतर आप रहते हों, यह संभव नहीं है; मकान इतना भीतर आपके रहता है कि आप मकान के भीतर कैसे रह सकते हैं!
द पजेसर बिकम्स द पजेस्ड। वह जो वस्तुओं का मालिक है, वस्तुओं का गुलाम हो जाता है। लेकिन इसमें वस्तुओं का कोई कसूर है, ऐसा मत समझ लेना। वस्तुओं का कोई हाथ ही नहीं है, यह बिलकुल इकतरफा लेन-देन है। यह आप ही हैं, जो गुलाम बन जाते हैं। यह आपकी ही दृष्टि और सोचने का ढंग है, जो गुलामी ले आता है। वस्तुओं का इसमें कोई भी हाथ नहीं है। वस्तुएं किसी को क्या गुलाम बनायेंगी? वस्तुओं को तो पता ही नहीं चलता कि किस आदमी को मालिक होने का भ्रम था और किस आदमी को गुलाम होने का भ्रम था। हम ही, आदमी ही अपनी दृष्टियों से घिरता और बंधता है। हाथ में पड़ी हुई जंजीरों के बीच भी कोई आदमी मुक्त हो सकता है, और सोने के आभूषणों में बैठा हुआ आदमी भी कारागृह में हो सकता है।
जिंदगी बड़ी अदभुत है। और आदमी से ज्यादा इरछी-तिरछी चाल चलनेवाला कोई भी प्राणी नहीं है। वह अजीब काम करता रहता है। गुलामियों के नाम बदलकर मालकियत रख लेता है, जंजीरों के नाम बदलकर आभूषण रख लेता है! और कारागृह के भीतर भी अगर हो, तो दीवालों को इतना सजा लेता है कि मालूम पड़ता है कि अपने घर में ही बैठा है!
हम सब अपने-अपने कारागृह की दीवालों को सजाए हुए बैठे हैं। हमने उन्हें बड़े अच्छे नाम दिए हैं। अच्छे नामों में हम खो गए हैं। लेकिन नाम देकर सत्यों को बदला नहीं जा सकता। सत्य सत्य है। और धर्म की शुरुआत सत्यों को उनकी सचाई में जानने से ही शुरू होती है।
अपरिग्रह, धर्म का बुनियादी तत्व है। अपरिग्रह का अर्थ है : इस सत्य को जान लेना कि जब तक मेरे मन में वस्तुओं की चाह है, तब तक मैं वस्तुओं का मालिक नहीं हो सकता हूं। जब तक मैं वस्तुओं को चाहता हूं, तब तक मैं वस्तुओं की गुलामी में रहूंगा ही। मैं उसी दिन वस्तुओं का मालिक हो सकता हूं, जिस दिन वस्तुओं की चाह मेरे भीतर से चली गई।
सुना है मैंने, सुना होगा आपने भी कि एक संन्यासी एक राजमहल में एक रात आया था। उसके गुरु ने उसे भेजा था कि वह जाये और सम्राट के दरबार में जाकर ज्ञान सीख आये। उसका गुरु परेशान हो गया था, नहीं सिखा सका था। तो उस संन्यासी ने कहा कि जब आपके आश्रम में नहीं सीख सका, तपश्चर्या की दुनिया में, तो सम्राट के महल में कैसे सीख सकूँगा? लेकिन गुरु ने कहा, बात मत करो, जाओ! वहीं पूछना।
अपरिग्रह (प्रश्नोत्तर)
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