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________________ भीतर है-खोज रहा है बाहर। इस प्रतीति का हो जाना अनुभव की गहराई है। वासनाएं वृत्ताकार हैं, वे कभी पूरी नहीं होती; लेकिन दौड़ने वाला दौड़-दौड़ कर अनुभव को उपलब्ध हो जाता है; और खड़ा हो जाता है। वृत्त को छोड़ देता है। वृत्ताकार, सर्कुलर, वासनाओं से हटकर खड़ा हो जाता है। और जिस दिन कोई व्यक्ति अचाह में, डिजायरलेसनेस में खड़ा हो जाता है, उस दिन उसको पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता। वह सभी कुछ पा लेता है। ओशो, पहले प्रश्न में एक चीज और समझनी है कि वस्तुएं, पजेशंस, अपने मालिक को, पजेसर को कैसे सम्मोहित, पजेस्ड कर लेती हैं? इसके क्या कारण हैं? मालिक बनने की आकांक्षा में ही गुलामी के बीज छिपे हैं; क्योंकि जिसके हम मालिक बनेंगे, उसका हमें अनजाने में गुलाम भी बन जाना पड़ता है। गुलाम इसलिए बन जाना पड़ता है, क्योंकि जिसके हम मालिक बनते हैं, हमारी मालकियत उस पर निर्भर हो जाती है। उसके बिना हमारी मालकियत नहीं हो सकती। और जब मालकियत किसी पर निर्भर होती है तो हम अपनी मालकियत के मालिक कैसे हो सकते हैं? मालिक तो वह हो गया, जिस पर वह निर्भर है। अगर दस गुलाम मेरे पास हैं, तो मैं दस गुलामों का मालिक हूं; लेकिन मेरी मालकियत दस गुलामों के होने पर निर्भर है। अगर ये दस गुलाम खो जायें, तो मेरी मालकियत भी खो जायेगी, उनके साथ ही खो जायेगी। उस मालकियत की कुंजी मेरे पास नहीं है, इन दस गुलामों के पास है। ये दस गुलाम बहुत गहरे में मेरे मालिक हो गये हैं, क्योंकि इनके बिना मैं मालिक न हो सकूँगा। और जिनके बिना हम मालिक न हो सकें, उनके हम मालिक कैसे हो सकते हैं? जिनके बिना हमारी मालकियत गिर जायेगी, जाने-अनजाने उनके हम गुलाम हो गए! हम उनसे बंध गए! __ और मजे की बात यह है कि गुलाम तो मुक्त भी होना चाहेगा; क्योंकि गुलामी में कोई रहना नहीं चाहता। इसलिए अगर मालिक मर जाये, तो गुलाम प्रसन्न होंगे; लेकिन अगर गुलाम मर जायें, तो मालिक रोयेगा। अब हमें सोचना चाहिए कि गुलाम इन दोनों में कौन था? जो रोता है, या जो हंसते हैं? मालकियत की आकांक्षा ही गुलाम बना देती है। सिर्फ वही आदमी इस दुनिया में मालिक है, जो किसी का मालिक नहीं होना चाहता है। सिर्फ वही आदमी मालिक हो सकता है, जिसने किसी को गुलाम नहीं बनाया है; क्योंकि उसकी मालकियत को खत्म नहीं किया जा सकता। उसकी मालकियत स्वतंत्र है। और मालकियत अगर स्वतंत्र न हो तो मालकियत कैसे हो सकती है? वस्तुएं भी हमारी छाती पर बैठ जाती हैं। वस्तुएं भी हमारे ऊपर हो जाती हैं। द पजेसर अपरिग्रह (प्रश्नोत्तर) 167 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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