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________________ क्योंकि जिसे हम खोज रहे हैं, वह हमारे भीतर है; क्योंकि जिसे हम खोज रहे हैं, वह हमारे साथ है; जिसे हम खोज रहे हैं, वह हमें सदा से ही मिला हुआ है। इसलिए जितना दौड़ते हैं, उतना ही उससे चूक जाते हैं, जो कि मिला ही हुआ है। अपने घर में देखने के लिए बाहर दौड़ना बंद करना पड़ेगा। अपने भीतर देखने के लिए बाहर की यात्रा छोड़नी पड़ेगी। जो निकट है, उसे देखने के लिए दूर से आंख लौटानी पड़ेगी। जो हाथ में है, उसे खोजने के लिए, दूसरे की मुट्ठियों को खोलना बंद करना पड़ेगा। अनुभव की गहराई, वासना की तृप्ति का नाम नहीं है। अगर वासना ही तृप्त हो सकती, तब तो महावीर नासमझ हैं। अगर वासना तृप्त हो सकती, तो बुद्ध पागल हैं। अगर वासना तृप्त हो सकती, तो जीसस की मनस-चिकित्सा होनी चाहिए, साइकोएनालिसिस होनी चाहिए। वासना तृप्त नहीं हो सकती है। बुद्ध ने कहा है, कामना दुष्पूर है। वह कभी पूरी नहीं हो सकती। लेकिन यह अनुभव वासना के बाहर ले जाता है। और जो वासना से नहीं मिला था वह निर्वासना में मिल जाता है। अनुभव की पूर्णता, वृत्ति की वासना की पूर्ण विफलता का नाम है। और तब अपरिग्रह का फूल खिलता है। जिसकी वृत्तियां गिर गईं, जिसकी चाहें गिर गईं, उसके भीतर अपरिग्रह का फूल खिलता है। तब वह दौड़ता नहीं, ठहर जाता है; खड़ा हो जाता है। तब मंजिल दूर नहीं होती, पैरों के नीचे हो जाती है। तब पाने को कुछ बाहर नहीं होता, तब पाने वाला ही अपने पाने का अंतिम, अपनी दौड़ का अंतिम लक्ष्य बन जाता है। पानेवाला ही, खोजनेवाला ही खोज हो जाता है। द सीकर बिकम्स द सीकिंग, द सीकर बिकम्स द साट। वह भीतर जो खोज रहा है, वह पाता है कि मैं अपने को ही खोज रहा था। लेकिन शायद दर्पणों में खोज रहा था। बहुत दर्पणों में खोजा, नहीं मिला। अब वह दर्पणों को छोड़कर अपने को देखता है; और पाता है कि दर्पण में मैं कभी मिल भी नहीं सकता था। क्योंकि दर्पण में सिर्फ रिफ्लेक्शन था; दर्पण में मैं ही प्रतिबिंबित हो रहा था; दर्पण में कोई था नहीं सिर्फ भ्रम था, एक वर्चुअल स्पेस का, एक झूठे आकाश का भ्रम था। दर्पण में जो दिखायी पड़ा था, वह कहीं था नहीं, दर्पण में कहीं भी न था। और अगर था तो दर्पण के बाहर था। लेकिन अगर दर्पण में ही कोई खोजने निकल पड़े...! ___हम सब दर्पण में खोज रहे हैं जब तक हम वासना में खोज रहे हैं। जिस दिन बहुत दर्पणों को तोड़कर, और सिर को तोड़कर, दर्पणों से टकराकर, लहूलुहान होकर, एक दिन आदमी दर्पण की तरफ पीठ फेर कर खड़ा हो जाता है, और कहता है : दर्पणों में बहुत खोज चुका, अब दर्पणों में नहीं खोलूंगा, उसी दिन उसे पता चलता है कि जिसे वह खोज रहा था, वह उसका ही प्रतिबिंब था। वासनाओं के दर्पण में हमने अपने ही चेहरे पकड़े हुए हैं। वासनाओं के दर्पण में हम अपने को ही खोज रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को खोज रहा है। लेकिन वहां खोज रहा है, जहां प्रतिफलन है, रिफ्लेक्शन है। वहां नहीं, जहां सत्य है। सत्य यहां है-खोज रहा है वहां। सत्य अभी है-खोज रहा है कभी। सत्य प्रतिपल है-खोज रहा है भविष्य में। सत्य 166 ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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