SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वह दौड़ना बंद करके खड़ा हो जाता है। क्योंकि वह कहता है कि बहुत दौड़ चुका इसी राह पर, कहीं कभी पहुंचा नहीं हूं; वहीं-वहीं वर्तुलाकार दौड़ रहा हूं, कहीं पहुंचता नहीं हूं। यह अनुभव की गहराई है। और अगर उसे लगता है कि दो कदम और दौड़ लूं, तो शायद पहुंच जाऊं, तो समझिए कि अभी अनुभव उसका इतना गहरा नहीं हुआ कि दौड़ने से मुक्ति हो जाये। अगर वह कहे कि एक चक्कर और लगा लूं, शायद अब तक जो नहीं मिला, अब मिल जाये, तो समझना कि अभी भी उसका अनुभव पूरा नहीं हुआ है। ___अनुभव के पूरे होने का अर्थ, वृत्ति का तृप्त हो जाना नहीं। अनुभव के पूरे होने का अर्थ, दौड़ का तृप्त हो जाना है। अब दौड़ नहीं रही। जाना बहुत बार है, दौड़े बहुत बार हैं, लेकिन पहुंचे कहीं भी नहीं। अब वह आदमी खड़ा हो जाता है। अब आप उससे कितना ही कहें कि एक कदम पर सोने की खदान है, तो वह कहता है, मैंने हजार कदम चलकर देख लिया, सोने की खदान सिर्फ दिखायी पड़ती है, है नहीं। आप कितना ही कहें कि जरा आगे बढ़ो और सब मिल जायेगा जो चाहा है, तो वह आदमी कहता है, जो-जो मैंने चाहा, वहवह मैंने कभी नहीं पाया। अब मैं इतना जान गया हूं कि चाहना, पाने का मार्ग नहीं है। यह अनुभव की गहराई है। वह यह कहता है कि मैं दौड़ा बहत. पर मंजिल नहीं मिली। आप कहें कि जरा तेजी से दौड़ो तो मंजिल मिल सकती है, वह आदमी कहता है, मैंने बहुत तेजी से दौड़ कर भी देख लिया, मैंने हांफ कर देख लिया, अब मैं पसीने-पसीने हो गया हूं; जन्मों से दौड़ रहा हूं; अब मैं एक बात जान गया हूं कि मंजिल दौड़कर नहीं मिलती। अब मैं खड़े होकर मंजिल पाने की कोशिश और कर लेता हूं। चाह से मुक्ति, चाह की तृप्ति नहीं है। चाह से मुक्ति, चाह का टोटल, चाह का संपूर्ण रूप से व्यर्थ हो जाना है। संपूर्ण रूप से व्यर्थ हो जाना, मैं कह रहा हूं। अगर आंशिक रूप से चाह व्यर्थ हुई है, तो नई चाह पकड़ लेगी। संपूर्ण रूप से चाह व्यर्थ हो गई है, तो फिर चाह नहीं पकड़ सकेगी। ऐसी जो चित्त की दशा है-जहां चाह ही व्यर्थ हो गई है-यह फ्रस्ट्रेशन की दशा नहीं है, यह अतृप्ति की दशा नहीं है। क्योंकि जहां फ्रस्ट्रेशन है, वहां अभी चाह व्यर्थ है यह पता नहीं चला। फ्रस्ट्रेशन का मतलब है, विषाद का मतलब है, एक चाह पूरी करनी चाही थी, वह पूरी नहीं हुई; लेकिन आशा मन में अभी है कि वह पूरी हो सकती थी। सफल मैंने होना चाहा था, असफल हुआ; लेकिन आशा मन में है कि और कुछ उपाय किए जाते, तो सफल हो सकता था। वही आदमी विषाद को, चित्त के दुख को, फ्रस्ट्रेशन को उपलब्ध होता है, जिसकी आशा नहीं मरती सिर्फ असफलता आती है। लेकिन जिसकी असफलता ही नहीं, आशा भी मर जाती है, वह अब विषाद को उपलब्ध नहीं होता। वह अचाह को, डिजायरलेसनेस को उपलब्ध हो जाता है। वह खड़ा हो जाता है। वह कहता है, दौड़ना व्यर्थ है। दौड़कर बहुत खोजा, अब खड़े होकर पा लूं। और मजे की बात है कि जो दौड़कर कभी नहीं मिला, वह खड़े होते ही मिल जाता है। अपरिग्रह (प्रश्नोत्तर) 165 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy