________________
मेरी दोनों बातें एक ही अर्थ रखती हैं, उनमें कोई विरोध नहीं है।
ऐसे ही मैं निरंतर कहता हूं कि जिसने कभी शास्त्र नहीं जाने, वह कभी शास्त्र से मुक्त न हो सकेगा। जिसने शास्त्रों को जाना, वह शास्त्रों से मुक्त हो जाता है।
ऐसे ही मैं कहता हूं कि जिसने क्रोध नहीं जाना, वह क्रोध से मुक्त न हो सकेगा। लेकिन जिसने क्रोध की पूरी पीड़ा और अग्नि जानी है, वह क्रोध से मुक्त हो जाता है।
ऐसे ही मैं कहता हूं कि जिसने काम नहीं जाना, वासना नहीं जानी, वह कभी कामवासना से मुक्त न हो सकेगा। जो कामवासना को जान जाता है, वह उसकी परिधि के बाहर हो जाता है।
अनुभव मुक्ति है क्योंकि अनुभव ज्ञान है। धन का अनुभव ही धन के बाहर ले जाता है।
ओशो, इसी संदर्भ में विरोधाभास पर प्रश्न कर रहा हूं। आप निरंतर कहते हैं और अभी आपने कहा है कि भोग की पूरी गहराइयों में उतर कर ही व्यक्ति कामना और वासनाओं का अतिक्रमण कर पाता है, उनसे मुक्त हो जाता है, लेकिन अपरिग्रह के पिछले प्रवचन में आपने कहा था कि वासनाएं, कामनाएं वृत्ताकार हैं, सर्कुलर हैं, वे कहीं भी तृप्ति नहीं बनतीं। कृपया इस विरोधाभास को स्पष्ट करें।
वासनाओं के अनुभव से ही व्यक्ति वासनाओं से मुक्त होता है; क्योंकि अनुभव के अतिरिक्त कोई मार्ग ही मुक्ति का नहीं है। संसार ही द्वार है मोक्ष का; और नर्क ही द्वार है स्वर्ग का; और कारागृह ही द्वार है मुक्ति का। जितनी पीड़ा अनुभव होती है संसार में, वही पीड़ा संसार के पार ले जाने के लिए मार्ग बन जाती है-ऐसा मैं निरंतर कहता हूं। यह भी मैंने कहा कि वृत्तियां कभी तृप्त नहीं होती हैं। वे वर्तुलाकार हैं; सर्कुलर हैं। उनमें दौड़ते जाइए, कहीं अंत नहीं आता। कितना भी दौड़िए, आगे रेखा सदा शेष रह जाती है। और भी दौड़िए-रेखा शेष रह जाती है। जैसे कोई व्यक्ति गोल घेरे में दौड़े तो गोल घेरा कहीं समाप्त नहीं होता, वैसे ही वृत्तियां कहीं समाप्त नहीं होती; कोई वृत्ति कभी पूरी तरह तृप्त नहीं होती। लेकिन दूसरी तरफ मैं कहता हूं कि वृत्ति के गहरे अनुभव से ही व्यक्ति मुक्त होता है। ये दोनों बातें विरोधी दिखायी पड़ती हैं-विरोधी हैं नहीं। ___ व्यक्ति तृप्त नहीं होता गहरे अनुभव से, गहरे अनुभव से मुक्त होता है। तृप्त हो जाये, तब तो मुक्ति की कोई जरूरत ही नहीं है। तृप्त नहीं होता है-यही तो मुक्ति में ले जाने का कारण बनता है। हजार बार दौड़ चुका है एक ही गोल घेरे में-पाता है, वहीं-वहीं दौड़ता है; कोल्हू के बैल की तरह दौड़ता है, पर तृप्ति नहीं होती।
यह अनुभव ही वृत्ति का गहरा अनुभव है कि दौड़ता हूं बहुत, खोजता हूं बहुत, पा भी लेता हूं, फिर भी खाली हाथ रह जाता हूं। और एक बार नहीं, अनेक बार इस अनुभव की गहराई में जो उतर जाता है, ऐसा नहीं है कि उसकी वृत्ति तृप्त हो जाती है, बल्कि ऐसा कि
164
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org