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के कभी नहीं होता, लेकिन आधार बिना भवन के हो सकते हैं। कोई नींव को भरकर ही छोड़ दे तो भवन तो नहीं उठेगा, पर आधार जरूर होंगे। लेकिन भवन हो तो बिना आधार के नहीं होता है।
संपन्नता वीतरागता का आधार है। संपन्न हुए बिना कभी कोई नहीं जान पाता कि संपन्नता व्यर्थ है। धन पाए बिना कभी कोई नहीं जान पाता कि धन से कुछ भी नहीं मिलता की जो सबसे बड़ी देन है, वह धन नहीं है। धन की सबसे बड़ी देन, धन के भ्रम का टूट जाना है, डिसइल्यूजनमेंट है। धन न मिले, तो धन की व्यर्थता का कभी भी पता नहीं चलता। विपन्न, दीन, दरिद्र, धन से मुक्त होने में बड़ी कठिनाई पायेगा । जो है ही नहीं, उससे मुक्त हुआ भी कैसे जा सकता है? मुक्त होने के लिए होना भी चाहिए। और जो हमें मिल जाता है, केवल उसी से हम मुक्त हो सकते हैं।
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इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि संपन्न समाज ही धार्मिक हो पाता है, संपन्नता ही व्यक्ति को धन के ऊपर, अतिक्रमण में ले जाती है।
लेकिन पिछली अपरिग्रह की चर्चा में जब मैंने यह कहा कि थोड़ी चीजें कम बांधती हैं, ज्यादा चीजें ज्यादा बांध लेती हैं, तो हो सकता है - जैसा कि प्रश्न में पूछा गया है - अनेक मित्रों को लगा हो कि इन दोनों में कोई विरोधाभास है। विरोधाभास नहीं है। कम गुलामी से छूटना बहुत मुश्किल है, ज्यादा गुलामी से छूटना ही संभव हो पाता है। जंजीरें बहुत कम हों तो आदमी सह लेता है; जंजीरें बहुत ज्यादा हों, तो बगावत हो जाती है। गरीब आदमी की जंजीरें इतनी कम होती हैं कि उनको तोड़ने का खयाल भी पैदा नहीं होता । अमीर आदमी की जंजीरें बढ़ जाती हैं, तो तोड़ने का खयाल भी पैदा होता है।
इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है । वस्तुओं के बढ़ जाने पर ही पता चलता है कि मैंने व्यर्थ का बोझ इकट्ठा कर लिया है। और ऐसा बोझ, जो मैंने सोचा था कि मुझे मुक्ति देगा; पर मुक्ति उससे नहीं मिली, सिर्फ मैं दब गया। ऐसा बोझ, जिससे मैंने सोचा था कि कोई उड़ान भर सकूंगा; उड़ान नहीं हुई, केवल मेरे पैर चलने में असमर्थ हो गए।
अधिक गुलामी स्वतंत्रता के निकट पहुंचा देती है । और जैसे सुबह होने के पहले अंधेरा बढ़ जाता है, वैसे ही स्वतंत्रता की संभावना के पहले दासता बढ़ जाती है। संपन्न व्यक्ति गहरी गुलामी में है, इसलिए गुलामी का बोध भी होता है । छोटी-मोटी गुलामी के लिए हम एडजेस्ट हो जाते हैं, समायोजित हो जाते हैं। छोटी-मोटी गुलामी को हम पी लेते हैं और सह लेते हैं। पर जितनी बड़ी गुलामी हो, उतना ही सहना मुश्किल होता चला जाता है। और छोटी गुलामी को हम इस आशा में भी सह लेते हैं कि शायद कल गुलामी कम हो जाये ।
गरीब के पास जो भी कुछ है, उसे छोड़ने का खयाल उसे पैदा नहीं होता; क्योंकि उसकी जिंदगी में तो जो नहीं है, उसको पाने की दौड़ जारी रहती है । अमीर आदमी के पास वह सब हो जाता है जिसे पाने की दौड़ थी, और अब पाने को कुछ भी नहीं रह जाता, फिर भी वह पाता है कि पाया कुछ भी नहीं गया है। पाने को कुछ शेष नहीं रहा, और पाया कुछ भी नहीं गया है, बाहर सब इकट्ठा हो गया और भीतर पूरी रिक्तता खड़ी है । ये क्षण ही संपन्न
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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