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और अगर कभी किसी समाज ने ऐसे अहिंसक होने की भूल की, तो वह सिर्फ कायर हो जायेगा, अहिंसक नहीं हो पायेगा । और ऐसा हुआ भी ।
महावीर की अहिंसा को समाज ने समझा कि हम अपनी अहिंसा बना लेंगे, तो अहिंसक समाज पैदा हो गये ! अहिंसक समाज हो नहीं सकता । महावीर की अहिंसा का समाज नहीं हो सकता। महावीर की अहिंसा के सिर्फ इंडिविजुअल व्यक्ति हो सकते हैं। इसलिए जो समाज महावीर की अहिंसा को मानकर अहिंसक होने की कोशिश करेगा, वह सिर्फ कायर, कवर्ड हो जायेगा और कुछ भी नहीं हो सकेगा। लेकिन वह अपनी कायरता को अहिंसा कहेगा । हिंसा न करने की हिम्मत को वह अहिंसा कहे चला जायेगा। लेकिन उसकी भी चमड़ी को जरा उखाड़ें, तो भीतर हिंसा के झरने फूटते हुए मिल जायेंगे । कायर भी बड़ा हिंसक होता है, लेकिन मन ही मन में होता है। समाज अभी अहिंसक नहीं हो सकता- - कभी हो सकता है, ऐसा भी मैं नहीं कहता । बहुत मुश्किल है; असंभव ही है। व्यक्ति ही अहिंस हो सकता है। जिस अहिंसा की मैं बात कर रहा हूं, वह अहिंसा सामाजिक सत्य नहीं, व्यक्तिगत उपलब्धि है।
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और दूसरी बात पूछी है कि 'क्या हिटलर, मुसोलिनी, स्टैलिन या माओ सामाजिक अनिवार्यताएं हैं?'
अगर वे सामाजिक अनिवार्यताएं हैं, तो वे व्यक्ति नहीं हैं । व्यक्ति है ही वही, जो समाज की अनिवार्यता के ऊपर उठता है; जो समाज की विवशता के ऊपर उठता है; जो स्वतंत्र है; जो चुनाव करता है; जो निर्णय करता है । लेकिन, अगर वे सोशल इनएवीटेबिलीटीज हैं, सामाजिक अनिवार्यताएं हैं, मजबूरी हैं समाज की, तब फिर वे व्यक्ति नहीं हैं। और समाज जिस भांति हिंसक होता है, उस भांति वे भी हिंसक होंगे। और अगर वे व्यक्ति नहीं हैं, तो वे मनुष्य तल पर नहीं होंगे, वे पशु के तल पर वापस गिर जाते हैं।
मनुष्य के तल पर होने के लिए सामाजिक अनिवार्यता से ऊपर उठना जरूरी है। सिर्फ वही व्यक्ति मनुष्य है, जिसके पास व्यक्तित्व है। जो यह कह सकता है कि जो भी मैं हूं, वह मेरा निर्णय है, समाज का नहीं। जो भी मैं कर रहा हूं, वह मैं कर रहा हूं, समाज मुझसे करवा नहीं रहा है।
लेकिन कम्युनिज्म ऐसा मानता है कि व्यक्ति तो है ही नहीं, समाज ही है। कम्युनिज्म ऐसा मानता है कि व्यक्ति इतिहास निर्मित नहीं करते हैं, इतिहास व्यक्तियों को निर्मित करता है। कम्युनिज्म ऐसा मानता है कि इट इज़ नाट द कांशसनेस व्हिच डिटरमिंस सोशल कंडीशंस, बट आन द कंट्रेरी, सोशल कंडीशंस आर द बेस व्हिच डिटरमिंस कांशसनेस । समाज की स्थितियां ही चेतना को निर्धारित करती हैं, चेतना समाज की स्थितियों को निर्धारित नहीं करती।
तो कम्युनिज्म के हिसाब से तो व्यक्ति है ही नहीं । माओ नहीं है, हिटलर नहीं है, मुसोलिनी नहीं है, महावीर नहीं हैं, बुद्ध नहीं हैं। लेकिन पता नहीं कम्युनिज्म किस तरह की अवैज्ञानिक बातें विज्ञान के नाम पर कहे चला जाता है! कोई सामाजिक परिस्थिति महावीर
ब्रह्मचर्य (प्रश्नोत्तर)
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