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लौटता। उसके नये जन्म असंभव हो जाते हैं। क्योंकि नये जन्म के लिए आकांक्षा और तृष्ण और कामना जरूरी है। वही लौटता है नये जन्म के लिए, जिसकी कोई कामना शेष रह गई है, और जिसे वह पूरा करना चाहता है। अगर महावीर और बुद्ध भी लौटते हैं एक-एक जन्मों में, तो वे भी इसीलिए लौटते हैं कि कम से कम एक कामना उनकी शेष रह गई कि उन्होंने जो जाना है, उसे वे दूसरों से कहना चाहते हैं । वह भी काफी वासना है ! अगर मेरे पास कुछ है, और मैं दूसरों को कहना चाहता हूं, तो भी लौट आऊंगा। लेकिन वह भी वासना है- आखिरी वासना है । वह भी तिरोहित हो जाती है, फिर लौटना कैसे होगा ?
जो आत्मज्ञान को उपलब्ध होते हैं, वे तिरोहित हो जाते हैं अंतरिक्ष में । वे किसी विराट कॉस्मास में, किसी विराट चेतना के साथ एक हो जाते हैं। जो नहीं उपलब्ध होते, वे वापस लौटते चले आते हैं।
इसलिए समाज कभी-कभी आत्मज्ञान के फूल को खिलाता है। लेकिन वह फूल खिला, मुर्झाया कि उसकी सुगंध आकाश में खो जाती है। और फिर समाज चलता रहता है।
समाज आत्मज्ञानी नहीं हो सकेगा, समाज आत्म- अज्ञानी ही बना रहेगा। लेकिन इस आत्म-अज्ञानी समाज में आत्मज्ञानी व्यक्ति का फूल खिलता रहेगा, खिलता रह सकता है, खिलता रहना चाहिए।
समाज के तल पर अहिंसा कभी पूर्ण सत्य नहीं हो सकती। इसलिए जिन लोगों ने सामाजिक तल पर अहिंसा की बात की है, वे हिंसा को भी स्वीकृति देते हैं; और देनी ही पड़ेगी। हिंसा जारी रहेगी । तब हिंसा-अहिंसा दो पहलू होंगे समाज के, जब जो जरूरी हो । जब अहिंसा से काम चले, तो अहिंसा; और जब हिंसा से काम चले, तो हिंसा; जिससे भी काम चल जाये।
हिंदुस्तान में आजादी की लड़ाई चलती थी, तो आजादी की लड़ाई लड़नेवाला अहिंसक था। फिर वही सत्ताधिकारी बना तो हिंसक हो गया। आजादी की लड़ाई अहिंसा से चल सकती थी, क्योंकि हिंसा से चलने का कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता था। तो उसने आजादी की लड़ाई अहिंसा से चला ली। लेकिन सत्ता में आने के बाद उसने नहीं सोचा कि अब सत्ता अहिंसा से चलाई जाये। अब सत्ता हिंसा से चल रही है । अंग्रेजों ने इतनी गोली कभी नहीं चलायी थी इस मुल्क में, जितनी उन लोगों ने चलाई, जो अहिंसक हैं।
तो जो अहिंसा को नीति समझता है, समाज की एक कनवीनिएंस समझता है, एक सुविधा समझता है, जरूरत पड़ने पर हिंसक हो जायेगा। हिंसक - अहिंसक होना उसकी सुविधा की बात होगी। लेकिन महावीर को किसी भी भांति हिंसक नहीं बनाया जा सकता। उनके लिए अहिंसा सामाजिक नीति-नियम नहीं, आध्यात्मिक सत्य है । वह कनवीनिएंस नहीं है। वह कोई सुविधा की बात नहीं है कि हम कुछ भी हो जायें। वह उनकी परम नियति है, वह उनकी डेस्टिनी है ।
अहिंसा के लिए सब खोया जा सकता है - स्वयं को भी खोया जा सकता है | अहिंसा किसी के लिए नहीं खोयी जा सकती। पर ऐसा अहिंसक होना व्यक्ति के लिए ही संभव है।
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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