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उस दिन तक खोजना है, जब तक वह मिल ही नहीं जाता है। उसके मिलन को मैंने समानुभूति कहा है। वही अहिंसा है, वही प्रेम है, वही अद्वैत है, वही मुक्ति है।
एक आखिरी सवाल और पूछ लें।
ओशो, हिंसा और सामाजिक न्याय का क्या संबंध है? कभी ऐसी चर्चा की जाती है कि अहिंसा और हिंसा दोनों सामाजिक न्याय की रीति ही हैं और माओ, स्टैलिन, हिटलर वगैरह ऐतिहासिक अनिवार्यता थी। आपका इस पर क्या मंतव्य है?
अहिंसा सामाजिक नीति और नियम नहीं है। और अगर अहिंसा सामाजिक नीति और नियम है, तो हिंसा से कभी छुटकारा नहीं हो सकता। अहिंसा आध्यात्मिक नियम है, सामाजिक नहीं; सोशल नहीं, स्प्रिचुअल।।
अगर सामाजिक नियम बनायें हम अहिंसा को, तब तो फिर कभी हिंसा भी जरूरी मालूम होगी। और ऐसा उपद्रव है कि कभी तो अहिंसा की रक्षा के लिए भी हिंसा जरूरी हो जायेगी। एक आदमी अगर किसी पर हिंसा कर रहा है, तो अदालत उस आदमी पर हिंसा करेगी; क्योंकि वह हिंसा कर रहा था। एक राष्ट्र अगर दूसरे के साथ हिंसा करेगा, तो वह राष्ट्र उसे हिंसा से उत्तर देगा; क्योंकि हिंसा का उत्तर देना न्यायसंगत है; हिंसा को झेलना अन्याय है, और अन्याय को झेलना उचित नहीं है।
अहिंसा के जिस सूत्र की मैं बात कर रहा हूं, वह आध्यात्मिक नियम है। और अगर सामाजिक अहिंसा की हम बात करना चाहें, तो सामाजिक अहिंसा का सदा सापेक्ष, रिलेटिव नियम होगा। उसमें हिंसा-अहिंसा दोनों की जगह होगी। उसमें हिंसा भी चलेगी, अहिंसा भी चलेगी। उसमें वे दोनों मिश्रित होंगी। वह मिक्स्ड इकॉनामी होगी। उसमें अहिंसा और हिंसा एक दूसरे के साथ ही खड़ी रहेंगी, और पहलू बदलते रहेंगे।
समाज के तल पर पूर्ण अहिंसा अभी नहीं पायी जा सकती; अभी तो एक-एक व्यक्ति के तल पर ही पूर्ण अहिंसा पायी जा सकती है। समाज के तल पर कभी हम पा सकेंगे, इसकी आशा भी शायद करनी उचित नहीं है। यह वैसे ही उचित नहीं है, जैसे कि आत्मज्ञान हम किसी दिन समाज के तल पर पा सकेंगे, यह आशा करनी उचित नहीं है।
किसी दिन सारे मनुष्य आत्मज्ञान को उपलब्ध हो जायेंगे, ऐसी आशा करना भी उचित नहीं है। क्योंकि चुनाव है, और कोई अगर आत्म-अज्ञानी रहना चाहेगा तो उसे आत्मज्ञान के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। आत्मज्ञान की सदा ही स्वतंत्रता रहेगी, चुनाव रहेगा, कोई होना चाहेगा...। हां, हम यह आशा कर सकते हैं कि धीरे-धीरे ज्यादा से ज्यादा लोग आत्मज्ञान को उपलब्ध होते जायेंगे।
लेकिन एक और खतरा है, वह भी मैं आप से कहूं। कि जो व्यक्ति भी आत्मज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, वह हमारे इस समाज में वापस लौटना बंद हो जाता है। वह वापस नहीं
ब्रह्मचर्य (प्रश्नोत्तर) 155
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