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तक तुम कहते हो, मैं तो बिलकुल खाली हाथ हूं, तब तक तुम खाली हाथ कैसे हो सकते हो? कम से कम 'मैं' तो तुम्हारे हाथों में भरा ही है। इस 'मैं' को बाहर छोड़ दो।
___ मैं को बाहर छोड़े बिना कोई परमात्मा के मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकता। मैं को छोड़कर जो जीता है, वह एम्पैथी को, समानुभूति को उपलब्ध होता है। जिसका मैं मर जाता है, उसके लिए, दूसरों को जो हो रहा है वह भी उसे ही हो रहा है। या उसे का भी सवाल नहीं है, बस हो रहा है। कहीं भी कांटा गड़ता है, तो उसकी पीड़ा उसे भी पहुंच जाती है। कहीं आनंद की बांसुरी बजती है, तो वे भी उसके अपने ही स्वर हो जाते हैं। अब कुछ भी पराया नहीं, अब कुछ भी अजनबी नहीं, अब कुछ भी दूसरा नहीं।
समानुभूति अध्यात्म की श्रेष्ठतम ऊंचाई है। सहानुभूति हमारी कामचलाऊ दुनिया की व्यावहारिकता है। उस सहानुभूति में अक्सर तो निन्यानबे प्रतिशत झूठी होती है सहानुभूति। हम सिर्फ धोखा देते हैं-दूसरों को ही नहीं, अपने को भी। कभी एक प्रतिशत सच होती है, तब भी मैं और तू कायम रह जाते हैं, घड़े मौजूद रहते हैं। शायद झांककर एक घड़े से दूसरे घड़े में हम देख लेते हैं, लेकिन फिर भी दोनों के बीच एक ही है, एक ही प्रवाहित है-इसका कोई पता नहीं चल पाता है।
समानुभूति मैंने उस तत्व को कहा है, जहां एक ही शेष रह जाता है, जहां दूसरा नहीं है। अद्वैत कहें, ब्रह्म कहें, परमात्मा कहें, और कोई नाम दें; अस्तित्व कहें, एक्झिस्टेंस कहें, कोई
और नाम दें; एक ही जहां रह जाता है, वहां जीवन अपनी परम ऊंचाइयों पर, अपने पीक एक्सपीरिएंस पर परम अनुभूति को उपलब्ध होता है। गिराना होता है तू को और मैं को। ___ उस दिन मैंने यह भी कहा कि मैं और तू का संबंध ही हिंसा है। कठिन होगा थोड़ा, क्योंकि मैं और तू के अतिरिक्त हम कोई भी क्षण नहीं जानते। लेकिन थोड़ा प्रयोग करें, तो शायद क्षणों की झलक मिल जाये।
कभी रेत में, नदी के किनारे बैठकर। लेट जायें, दोनों हाथ-पैर पसार कर। छाती में भर लें रेत को। बंद कर लें आंखें। छिपा लें अपने चेहरे को भी रेत में। भूल जायें यह कि आप हैं और रेत है। तोड़ दें वह बीच की जगह, वह फासला जो रेत को आपसे अलग करता है। रेत की ठंडक को प्रवेश कर जाने दें स्वयं में। स्वयं की गर्मी को प्रवेश कर जाने दें रेत में। अनुभव करें कि फैल गए हैं और एक हो गए हैं उस रेत से।
कभी खुले आकाश में हाथ फैलाकर खड़े हो जायें। आलिंगन कर लें खुले आकाश का, शून्य का। कभी घड़ी भर मौन रह जायें खुले आकाश के साथ। छोड़ दें यह खयाल कि शरीर की सीमा पर मैं समाप्त हो जाता हूं। बढ़ायें अपनी सीमा को। हो जाने दें इतनी ही बड़ी जितनी आकाश की है।
कभी रात के तारों के साथ, लेट जायें जमीन पर। और रात के तारों को आने दें अपने तक। और जाने दें अपने को तारों तक। और भूल जायें कि वहां तारे हैं और यहां आप हैं। तारे और आपके बीच जो लेन-देन रहे, वही बाकी रह जाये। वह जो कम्युनिकेशन हो, वह जो संवाद हो, वही बाकी रह जाये।
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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