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हूं। इसलिए मैंने दूसरा शब्द चुनना उचित समझा, वह है - समानुभूति, एम्पैथी ।
सहानुभूति एक तो झूठी होती है, वंचना होती है, और अगर हम यह भी समझ लें कि किसी आदमी की सहानुभूति सच्ची ही हो; वह दूसरे के दुख में दुख अनुभव करे और दूसरे के सुख में सुख अनुभव करे, तो भी हिंसा ही रहती है; अहिंसा नहीं हो पाती। झूठी हो, तब तो निश्चित ही हिंसा होती है; सच्ची हो, तब भी हिंसा ही होती है; अहिंसा नहीं हो पाती। क्योंकि जब तक दूसरा मौजूद है, तब तक अहिंसा फलित नहीं होती । अहिंसा अद्वैत की अनुभूति है | अहिंसा इस बात का अनुभव है कि वहां दूसरा नहीं, मैं ही हूं।
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जब दूसरा दुखी हो रहा है, तब ऐसा अनुभव हो कि दूसरा दुखी हो रहा है और मैं भी दुख अनुभव कर रहा हूं - यह अगर झूठा है, तब तो हिंसा होगी ही - अगर सच्चा ही है, तो भी मैं मैं हूं और दूसरा दूसरा है; दोनों के बीच का सेतु नहीं टूट गया है; और जहां तक दूसरा दूसरा है, वहां तक अहिंसा संभव नहीं है। दूसरे को दूसरा जानना भी हिंसा है । क्यों ? क्योंकि जब तक मैं दूसरे को दूसरा जान रहा हूं, तब तक मैं अज्ञान में जी रहा हूं; दूसरा, दूसरा है नहीं ।
समानुभूति का अर्थ है कि दूसरे को दुख हो रहा है, ऐसा नहीं - मैं ही दुखी हो गया हूं। दूसरा सुखी हो गया है, ऐसा नहीं - मैं ही सुखी हो गया हूं। ऐसा नहीं कि आकाश में चांद प्रकाशित हो रहा - मैं ही प्रकाशित हो गया हूं। ऐसा नहीं कि सूरज निकला है— बल्कि मैं ही निकल आया हूं। ऐसा नहीं कि फूल खिले हैं - बल्कि मैं ही खिल गया हूं।
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एम्पैथी का अर्थ है, अद्वैत । समानुभूति का अर्थ है, एकत्व । अहिंसा, एकत्व है। तो ये तीन स्थितियां हुईं : झूठी सहानुभूति, फॉल्स सिम्पैथी - जो हिंसा है। सच्ची सहानुभूति — जो हिंसा का बहुत सूक्ष्मतम रूप है। और समानुभूति – जो अहिंसा है।
हिंसा हो या हिंसा का सूक्ष्म रूप हो, सच्ची सहानुभूति हो, झूठी सहानुभूति हो, वे सब मानसिक तल की घटनाएं हैं। समानुभूति, एम्पैथी आध्यात्मिक तल की घटना है।
मन के तल पर हम कभी एक नहीं हो सकते। मेरा मन अलग है, आपका मन अलग है । मेरा शरीर अलग है, आपका शरीर अलग है। शरीर और मन के तल पर ऐक्य असंभव है - हो नहीं सकता। सिर्फ आत्मा के तल पर ऐक्य संभव है; क्योंकि आत्मा के तल पर हम एक हैं ही।
जैसे एक घड़े को हम पानी में डुबा दें, भर जाये घड़े में पानी, तो घड़े के भीतर पानी और घड़े के बाहर पानी एक ही है। सिर्फ बीच में एक घड़े की मिट्टी की दीवाल है, जो टूट जाये, तो पानी एक हो जाये ।
मन और शरीर की एक दीवाल है, जो दूसरे से मिलने से रोकती है, जो दूसरे के साथ एक नहीं होने देती। हम सब घड़े हैं मिट्टी के, चेतना के बड़े सागर में । घड़े तो अलग होंगे, लेकिन घड़े के जो भीतर है, वह अलग नहीं है । और जो अहिंसा को अनुभव करता है, या अनुभव करता है, वह अनुभव कर लेता है कि घड़े कितने ही अलग हों, घड़े भीतर एक ही विराजमान है।
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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