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पीयो, हिंसा मत करो, किसी को मारो मत, दुख मत दो, मांस मत खाओ - इस तरह की ऊपरी अहिंसा बनकर रह गई ।
इसके जिम्मेवार महावीर नहीं हैं । महावीर के आस-पास जो लोग थे, जिनसे उन्हें बात करनी थी, वे लोग जिम्मेवार हैं। इसलिए वह परंपरा बहुत साधारण होकर रह गई ।
सोचें, कैसे अदभुत लोग रहे होंगे ऋषभ और पार्श्व, जिन्होंने ब्रह्मचर्य की बात ही नहीं की! क्योंकि उन्होंने कहा, अहिंसक हो जाओ, तो ब्रह्मचर्य तो आ ही जायेगा । उसकी कोई अलग से व्यवस्था देने की जरूरत नहीं थी ।
कनफ्यूशियस एक बार लाओत्से के पास गया और लाओत्से से उसने कहा, , लोगों को धर्म सिखाना पड़ेगा। तो लाओत्से ने कहा कि तुम्हें पता है वह जमाना, जब लोग इतने धार्मिक थे कि धर्म की कोई बात ही नहीं करता था ?
धर्म की बात सिर्फ अधार्मिक समाज में करनी पड़ती है। धार्मिक समाज में धर्म की बात करने की कोई भी जरूरत नहीं है। लाओत्से ने कहा, जमाना था जब लोग धार्मिक थे, तब धर्म की बात करनी व्यर्थ थी । क्योंकि जब लोग धार्मिक हों, तो धर्म की बात नहीं करनी पड़ती। बीमार आदमी के सिवाय स्वास्थ्य की चर्चा और कोई भी नहीं करता। बीमार आदमी चौबीस घंटे स्वास्थ्य की चर्चा करता है। अक्सर बीमार आदमी खुद ही धीरे-धीरे डॉक्टर हो जाते हैं—स्वास्थ्य की चर्चा करते-करते ! बीमार आदमी स्वास्थ्य की पत्रिकाएं पढ़ते हैं, नेचरोपैथी की किताबें पढ़ते हैं ! बीमार आदमी स्वास्थ्य की बहुत चर्चा करता है, क्योंकि उस बेचारे को बीमारी इतना सचेतन बनाए रखती है कि स्वास्थ्य की चर्चा से मन को भुलाए रखता है। अनैतिक समाज नीति की चर्चाएं करते हैं, कामुक समाज ब्रह्मचर्य की चर्चाएं करते हैं, पतित समाज उत्थान की चर्चाएं करते हैं, गरीब समाज धन की चर्चा करते हैं । जो नहीं होता, हम उसकी ही चर्चा करते हैं।
महावीर के वक्त में हिंसा बहुत थी, अहिंसा बहुत गहरे नहीं जा सकती थी, इसलिए ब्रह्मचर्य की चर्चा अलग करनी पड़ी। ऋषभ को अहिंसा की चर्चा ही काफी हुई। और शायद ऋषभ के पहले अहिंसा की चर्चा की भी जरूरत न रही हो। क्योंकि अहिंसा की चर्चा भी तभी शुरू होती है, जब हिंसा जोर से चित्त को पकड़ लेती है।
इसलिए मैंने कहा कि काम भी हिंसा का एक रूप है, और अकाम अहिंसा का खिल जाना है।
ओशो, हम एक बड़ी मुसीबत में पड़ गए हैं! और वह मुसीबत हमारे लिए यह है कि अभी तक हमारी यह धारणा रही थी कि सहानुभूति, सिम्पैथी ही अहिंसा का एक अंग है। और हम बहुत दिनों से बराबर इसे मानते रहे थे। लेकिन पंच महाव्रत प्रवचनमाला के अंतर्गत आपने अहिंसा के संदर्भ में बताया कि सहानुभूति में हिंसा छिपी है, क्योंकि इसमें दूसरा मौजूद है। फिर आपने इसको और आगे बढ़ाया और आपने समानुभूति का उदाहरण देते हुए
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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