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कमरे पर तीर लगा होता था और भी अदभुत चीजें हैं और तीर अगले कमरे में ले जाता था। और बारहवें कमरे पर सबसे बड़ा तीर लगा था और उस पर लिखा था-और भी सबसे अधिक अदभुत चीजें हैं, जो न कभी देखी हैं, न कभी सुनी हैं! और जब आदमी उस कमरे में से निकलता, तो सीधा सड़क पर पहुंच जाता! और पीछे लौटने का उपाय नहीं था। दरवाजे पर संतरी खड़ा था। फिर लौटना हो, तो टिकट लेकर पहले दरवाजे से ही वापस लौटना पड़ता था। जिस दिन से यह तख्ती लगायी गई, उस दिन से उस म्यूजियम में कभी भीड़ नहीं हुई, क्योंकि वह और भी अदभुत चीजें' देखने आदमी सड़क पर पहुंच जाता! __जन्म की तख्ती सामने के द्वार पर है, मृत्यु की तख्ती पीछे के द्वार पर है। अहिंसा को जिन्होंने गहरे जीया है, जिन्होंने जाना है, वे यह भी कहेंगे कि जन्म देना भी हिंसा है।
इन तीन कारणों से काम-क्रीड़ा हिंसा का ही एक रूप है। और दुखी मनुष्य-जैसा मैंने पहले कहा-दूसरे से सुख पाना चाहता है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि वह दूसरा आदमी जो आपसे काम-क्रीड़ा में संलग्न हो रहा है, वह भी दुखी है, और आपसे सुख पाना चाहता है। ये दो भिखमंगे एक दूसरे से भीख मांग रहे हैं।
___ मैंने सुना है कि एक गांव में दो ज्योतिषी थे। वे रोज सुबह अपना ज्योतिष का काम करने बाजार जाते थे। और रास्ते में जब भी मिल जाते, तो एक दूसरे को अपना हाथ दिखा लेते थे कि क्या खयाल है, आज धंधा कैसा चलेगा?
हम सारी जिंदगी ऐसा ही कर रहे हैं। सब दुखी हैं और एक दूसरे से सुख मांग रहे हैं। जिससे मैं सुख मांगने गया हूं, वह मुझसे सुख मांगने आया है। स्वभावतः, इन दो दुखी
आदमियों का अंतिम परिणाम दुगुना दुख होगा, सुख नहीं। दुख दुगुना हो जायेगा। बल्कि दुगुना कहना ठीक नहीं, क्योंकि जिंदगी में जोड़ नहीं होते, गुणनफल होते हैं। यहां चीजें जुड़ती नहीं, गुणित हो जाती हैं। यहां चार और चार मिलकर आठ नहीं होते, सोलह हो जाते हैं। जिंदगी में जब दो दुखी आदमी मिलते हैं, तो उनका दुख सिर्फ जुड़ नहीं जाता, उनका दुख कई गुना हो जाता है।
मैं दूसरे को दुख देने का कारण बनूं-हिंसा है। और जब तक मैं दुखी हूं, तब तक मेरे सभी संबंध-जो मैं निर्मित करूंगा-दुख देनेवाले ही होंगे। इसलिए अहिंसक कहेगा, जब तक हिंसा है चित्त में, दुख है चित्त में, तब तक संग ही मत बनाओ, संबंध ही मत बनाओ, क्योंकि सब संबंध दुख को ही फैलायेंगे। असंग हो जाओ, संबंध के बाहर हो जाओ! जिस दिन आनंद भर जाये, उस दिन संबंधित हो जाना!
लेकिन कठिनाई यही है जिंदगी की कि जो दुखी हैं, वे संबंधित होना चाहते हैं; और जो आनंदित हैं, उन्हें संबंध का पता ही नहीं रह जाता! ऐसा नहीं कि वे संबंधित नहीं होते, लेकिन उन्हें पता नहीं रह जाता; कोई आकांक्षा नहीं रह जाती। अगर उनसे लोगों के संबंध भी बनते हैं, तो सदा वन वे ट्रैफिक होते हैं। दूसरे लोग ही उनसे संबंधित होते हैं। वे तो असंग, अनरिलेटेड खड़े रह जाते हैं। दूसरे ही उन्हें छूते हैं, वे दूसरों को नहीं छू पाते। हां, उनका आनंद जरूर जो उनके निकट आता है उन पर बरसता रहता है। वह वैसे ही बरसता
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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