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से इनकार कर रहा है, वह आदमी होने से इनकार कर रहा है। वह यह कह रहा है कि नहीं, हम पशु बेहतर–जहां न कोई चुनाव है, न कोई जिम्मेवारी है, न कोई निर्णय है, न कोई परेशानी है। जो है, वह है। हम वापस लौटते हैं।
शराब पीकर आदमी पशु में वापस लौट जाता है। हिंसा करके आदमी पशु में वापस लौट जाता है। क्रोध करके आदमी पशु में वापस लौट जाता है।
इसलिए क्रोध से भरे व्यक्ति को अगर देखें तो उसमें सिर्फ आदमियत की रूपरेखा भर दिखाई पड़ती है, आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। हिंसा से भरी हुई आंखें देखें, तो उसमें आदमी की आंखें नहीं दिखाई पड़तीं, तत्काल आंखों में एक मेटामार्कोसिस हो जाती है। आंखें बदल जाती हैं। भीतर से कोई छिपा हुआ पशु तत्काल प्रकट हो जाता है। इसलिए क्रोध में, हिंसा में आदमी पशु जैसा व्यवहार करता है; काटता है, चीखता है, नोचता है। __आदमी के नाखून छोटे पड़ गए हैं, क्योंकि उनकी बहुत जरूरत नहीं रह गई है। जंगली जानवर के पास नाखून हैं, जो आपकी हड्डियों तक के मांस को बाहर खींच लायें। लाखों वर्षों से आदमी को अब किसी की हड्डियों तक के मांस को खींचने की जरूरत नहीं रह गई, तो नाखून छोटे हो गए हैं। तो फिर आदमी को छुरी, भाले, बर्छियां बनानी पड़ी हैं। वे सब्स्टीटयूट हैं, जिनसे वह जानवर का काम ले लेता है। क्योंकि नाखून उसके पास छोटे पड़ गये हैं। दांत उसके अब ऐसे नहीं रहे कि वे किसी के मांस को काटकर बाहर निकाल लें, तो उसने हथियार, औजार बनाए; गोलियां बनाई हैं जो आदमी की छाती में धंस जायें।
आदमी ने जितने अस्त्र-शस्त्र खोजे हैं, वह अपनी खो गई पशुता को सब्स्टीट्यूट करने के लिए, परिपूरक करने के लिए खोजे हैं। जो जानवरों के पास है वह हमारे पास नहीं है, तो हमें बनाना पड़ा है।
निश्चित ही, जब हमने बनाया है तो जानवरों से बेहतर बना लिया है।
किस जानवर के पास एटम-बम है ? किस जानवर के पास सैकड़ों मील दूर बम फेंकने के उपाय हैं? नहीं, जानवर के पास बड़े प्रकृति-प्रदत्त साधन हैं। और आदमी ने अपनी सारी बुद्धिमत्ता का उपयोग करके-करोड़ों जानवरों को इकट्ठा करके भी जो न हो सके, वह एक आदमी कर सकता है। यह आदमी का अपना चुनाव है। __ जिस दिन किसी आदमी को यह बात स्पष्ट दिखाई पड़ जाती है कि जो भी मैं हूं, उसकी जिम्मेवारी मेरी है, उसी दिन से परिवर्तन और रूपांतरण शुरू हो जाता है। जिस आदमी की जिंदगी में अभी यह खयाल है कि जो मैं हं, हं; उसमें मेरा कोई वश नहीं, उस आदमी की जिंदगी में धर्म के मंदिर का द्वार कभी भी नहीं खुल सकता। __ उत्तरदायित्व मेरा है, और मैं ही निर्णायक हूं अपनी नियति का, इस बात का बोध मनुष्य की जिंदगी को परिवर्तित करता है। ___ इसलिए मैंने कहा कि आत्म-अज्ञान के लिए मनुष्य स्वयं जिम्मेवार है। जिम्मेवार इन अर्थों में कि वह तोड़ सकता है, और नहीं तोड़ रहा है; मिटा सकता है, और नहीं मिटा रहा है; मुक्त हो सकता है, और नहीं मुक्त हो रहा है।
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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