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होने की जिम्मेवारी परमात्मा पर होगी। पशु जैसा है, है। वृक्ष जैसे हैं, हैं। उनको हम दोषी नहीं ठहरा सकते और न ही हम उन्हें प्रशंसा के पात्र बना सकते हैं। पर आदमी बाहर हो गया है उस वर्तुल के, जहां से वह चुनाव के लिए स्वतंत्र है।
अब अगर मैं आत्म-अज्ञानी हूं, तो यह मेरा चुनाव है; और आत्म-ज्ञानी हूं, तो यह मेरा चुनाव है। अब अगर मैं दुखी हूं, तो यह मेरा चुनाव है; और आनंदित हूं, तो यह मेरा चुनाव है। आंखें खुली रखू या बंद, यह मेरा चुनाव है। चारों ओर प्रकाश मौजूद है। अब अंधकार में रहना मेरे हाथ की बात है, और प्रकाश में रहना भी मेरे हाथ की बात है।
इसलिए मैंने कहा कि आत्म-अज्ञान के लिए भी मनुष्य जिम्मेवार है। अब मनुष्य अपनी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं हो सकता। अब वह प्रतिपल ज्यादा से ज्यादा जिम्मेवार होता चला जायेगा। मनुष्य की यह जिम्मेवारी ही, उसकी गरिमा और गौरव भी है; यही उसकी मनुष्यता भी है। यहीं से वह पशुता के बाहर निकलता है।
इसलिए यह भी मैं आपसे कहना चाहूंगा कि जिन चीजों में हम बिना चुनाव किये बहते हैं, उन चीजों में हम पशु के तुल्य ही होते हैं।
यह भी बहुत मजे की बात है कि हिंसा आमतौर से हम चुनते नहीं, अतीत की आदत के कारण करते चले जाते हैं। अहिंसा चुननी पड़ती है। इसलिए अहिंसा एक उत्तरदायित्व है और हिंसा एक पशुता है। अहिंसा मनुष्यता की यात्रा पर एक मंजिल है, हिंसा सिर्फ पुरानी आदत का प्रभाव है। ___ मैंने निश्चित ही कहा है कि हिंसा आत्म-अज्ञान से पैदा होती है। और इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। आत्म-अज्ञान भी हमारा चुनाव है, हिंसा भी हमारा चुनाव है। हम होना चाहें अहिंसक, तो अब कोई हमें रोक नहीं सकता। मनुष्य जो भी होना चाहे, हो सकता है। मनुष्य का विचार ही उसका व्यक्तित्व है; उसका निर्णय ही, उसकी नियति है; उसकी आकांक्षा ही, उसकी अभीप्सा ही, उसका आत्मसृजन है। ___ इसलिए अब कोई आदमी अपने मन में यह कभी भूल कर भी न सोचे कि वह जो है, उसमें वह क्या कर सकता है? क्रोध है, तो क्या कर सकता है? हिंसा है, तो क्या कर सकता है? अज्ञान है, तो क्या कर सकता है? आदमी को यह कहने का हक नहीं है। जैसे ही आदमी कहता है कि मैं क्या कर सकता हूं, वह यह खबर दे रहा है कि कर सकता है, और अपने को समझाने की कोशिश कर रहा है कि क्या कर सकता हूं! कोई पशु नहीं कहता कि मैं क्या कर सकता हूं? यह सवाल ही नहीं है। ___ आदमी जिस दिन कहता है, मजबूरी है, मैं क्या कर सकता हूं? हिंसक मुझे होना ही पड़ेगा! उस दिन वह यह कह रहा है कि मैं चुन भी रहा हूं और चुनाव की जिम्मेवारी भी छोड़ रहा हूं। मैं हिंसक हो भी रहा हूं और हिंसक होने का दोष किसी और के कंधों पर-प्रकृति के, परमात्मा के कंधों पर छोड़ रहा हूं। __जिस आदमी ने अपनी आदमियत का बोझ किसी और पर छोड़ा, वह पशुता की दुनिया में वापस गिर जाता है। असल में वह आदमी होने से इनकार कर रहा है। जो आदमी चुनने
ब्रह्मचर्य (प्रश्नोत्तर)
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