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हो सकती है, डेफिनिशन हो सकती है कि बीमारी क्या है? लेकिन स्वास्थ्य की कोई परिभाषा नहीं हो सकती-स्वास्थ्य क्या है? इतना ही ज्यादा से ज्यादा हम कह सकते हैं कि जब कोई बीमार नहीं है तो वह स्वस्थ है।
धर्म परम स्वास्थ्य है! इसलिए धर्म की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। सब परिभाषा अधर्म की है। इन पांच दिनों में हम धर्म पर विचार नहीं करेंगे। अधर्म पर विचार करेंगे।
विचार से, बोध से, अधर्म छूट जाये तो जो निर्विचार में शेष रह जाता है, उसी का नाम धर्म है। इसलिए जहां-जहां धर्म पर चर्चा होती है, वहां व्यर्थ चर्चा होती है! चर्चा सिर्फ अधर्म की ही हो सकती है। चर्चा धर्म की हो नहीं सकती। चर्चा बीमारी की ही हो सकती है, चर्चा स्वास्थ्य की नहीं हो सकती। स्वास्थ्य को जाना जा सकता है, स्वास्थ्य को जीया जा सकता है, स्वस्थ हुआ जा सकता है, चर्चा नहीं हो सकती। धर्म को जाना जा सकता है, जीया जा सकता है, धर्म में हुआ जा सकता है, धर्म की चर्चा नहीं हो सकती। इसलिए सब धर्मशास्त्र वस्तुतः अधर्म की चर्चा करते हैं। धर्म की कोई चर्चा नहीं करता। __ पहले अधर्म की चर्चा हम करें-हिंसा। और जो-जो हिंसक हैं, उनके लिए यह पहला व्रत है। यह समझने जैसा मामला है कि आज हम जो विचार करेंगे वह यह मान कर करेंगे कि हम हिंसक हैं। इसके अतिरिक्त उस चर्चा का कोई अर्थ नहीं है। ऐसे भी हम हिंसक हैं। हमारे हिंसक होने में भेद हो सकते हैं। और हिंसा की इतनी पर्ते हैं, और इतनी सूक्ष्मताएं हैं, कि कई बार ऐसा भी हो सकता है कि जिसे हम अहिंसा कह रहे हैं और समझ रहे हैं, वह हिंसा का बहुत सूक्ष्म रूप हो। और ऐसा भी हो सकता है कि जिसे हम हिंसा कह रहे हैं, वह भी अहिंसा का बहुत स्थूल रूप हो। जिंदगी बहुत जटिल है।
उदाहरण के लिए, गांधी की अहिंसा को मैं हिंसा का सूक्ष्म रूप कहता हूं और कृष्ण की हिंसा को अहिंसा का स्थूल रूप कहता हूं। उसकी हम चर्चा करेंगे तो खयाल में आ सकेगा। हिंसक को ही विचार करना जरूरी है अहिंसा पर। इसलिए यह भी प्रासंगिक है समझ लेना, कि दुनिया में अहिंसा का विचार हिंसकों की जमात से आया।
जैनों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय थे। वह जमात हिंसकों की थी। उनमें एक भी ब्राह्मण नहीं था। उनमें एक भी वैश्य नहीं था। बुद्ध क्षत्रिय थे। दुनिया में अहिंसा का विचार हिंसकों की जमात से आया है। दुनिया में अहिंसा का खयाल, जहां हिंसा घनी थी, सघन थी, वहां पैदा हुआ है।
असल में हिंसकों को ही सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा है अहिंसा के संबंध में। जो चौबीस घंटे हिंसा में रत थे, उन्हीं को यह दिखाई पड़ा है कि यह हमारी बहुत अंतर-आत्मा नहीं है। असल में हाथ में तलवार हो, क्षत्रिय का मन हो, तो बहुत देर न लगेगी यह देखने में कि हिंसा हमारी पीड़ा है, दुख है। वह हमारा जीवन नहीं है। वह हमारा आनंद नहीं है।
आज का व्रत हिंसकों के लिए है। यद्यपि जो अपने को अहिंसक समझते हैं वे आज के व्रत पर विचार करते हुए मिलेंगे! मैं तो मान कर चलूंगा कि हम हिंसक इकट्ठे हुए हैं। और जब मैं हिंसा के बहुत से रूपों की आपसे बात करूंगा तो आप समझ पायेंगे कि आप किस
अहिंसा
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