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________________ है । और मनस- शास्त्री कहते हैं कि आदमी अब भी कर वही रहा है; एक दूसरे को सता रहा है । लेकिन यह हमें खयाल में नहीं आता । यह तब तक जारी रहेगा, जब तक कि कोई आदमी अपने साथ आनंदित नहीं है, जब तक कोई आदमी अपने साथ होने को राजी नहीं है। जैसे ही कोई आदमी अपने साथ होने को राजी हुआ, उसकी यात्रा दूसरे से हटकर, बाहर से हटकर... क्योंकि दूसरा सदा बाहर है, द अदर इज़ आलवेज द आउटर, द अदर इज़ आलवेज द विदाउट । वह तो बाहर होगा ही। जब तक दूसरे की तरफ खोज जारी रहेगी- वह चाहे पत्नी की हो, चाहे प्रेमिका की, चाहे प्रेमी की और चाहे परमात्मा की – अगर परमात्मा को कोई दूसरे की तरह देख रहा है, तो उसमें हिंसा जारी रहेगी; उसमें हिंसा से मुक्ति नहीं हो सकती । इसलिए महावीर ने बाहर के परमात्मा को इनकार कर दिया; क्योंकि महावीर को लगा कि अगर गाड इज़ द अदर, तो हिंसा का रास्ता बन जायेगा । इसलिए बहुत कम लोग समझ पाए महावीर की इस बात को कि वे ईश्वर को क्यों इनकार कर रहे हैं। नासमझों ने समझा कि शायद नास्तिक हैं। नासमझों ने समझा कि शायद ईश्वर नहीं है, इसलिए । महावीर ने कहा, कोई परमात्मा नहीं है सिवा तुम्हारे । और उसका कुल कारण इतना है कि अगर कोई भी परमात्मा है - दूसरे की तरह, तो वह जो हिंसक - चित्त है, वह उस परमात्मा को भी बाहर जाने का और नीचे जाने का रास्ता बना लेगा। महावीर ने कहा, बाहर कोई परमात्मा ही नहीं है। चलो अपनी तरफ, भीतर। वह आत्मा ही परमात्मा है । और जैसे ही कोई भीतर गया, वैसे ही ऊंचाइयों के शिखर शुरू हुए। भीतर बड़ी ऊंचाइयां हैं, बाहर बड़ी नीचाइयां हैं। भीतर बड़े गौरीशंकर के शिखर हैं, बाहर बड़े प्रशांत-महासागर की गहराइयां हैं। बाहर कोई उतरता जाये, तो अतल गहराइयों में गिरता जायेगा, जहां अंधकार होगा, जहां दुख होगा, जहां मृत्यु होगी, जहां पीड़ा होगी, जहां नर्क होगा। और कोई भीतर की तरफ बढ़े, स्वयं की तरफ, तो बड़ी ऊंचाइयां होंगी; कैलाश के शिखर होंगे; स्वर्ण मंदिरों के शिखर होंगे; मुक्ति होगी, मोक्ष होगा, स्वर्ग होगा ! वह भीतर की यात्रा है । जीवन-ऊर्जा जब हिंसा बनती है, तो पतित होती है। और जीवन-ऊर्जा जब अहिंसा बनती है, तो ऊर्ध्वगमन करती है। वह लाइफ-एनर्जी तो एक ही है, जीवन-ऊर्जा तो वही है। कभी बाहर की तरफ जाती है, तो दुख देती है और दुख लाती है; और कभी भीतर की तरफ जाती है, तो सुख देती है और सुख लाती है। किन्हीं भी क्षणों में, जब भी कभी आपने आनंद को जाना हो, तब आपने पाया होगा, आप एकदम अकेले हैं । किन्हीं भी क्षणों में, जब आनंद की पुलक आप में फैली हो, तब आपने पाया होगा, आप अपने भीतर हैं । किन्हीं भी क्षणों में, जब आनंद की वर्षा की एक बूंद भी आपके भीतर उस अमृत की टपकी हो, तब आपने पाया होगा, कोई नहीं, मैं ही हूं। और सब दुख सदा दूसरे से बंधे हुए पाए गये और सब सुख सदा स्वयं के भीतर ही पाए गये। Jain Education International For Personal & Private Use Only अहिंसा (प्रश्नोत्तर) 127 www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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