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________________ है, दूसरा ही नर्क है ? वह दूसरा ही क्यों नीचे की तरफ ले जाने का मार्ग है? क्यों ? क्योंकि जब हम दूसरे को खोजते हैं, तो एक बात तो पक्की हो गयी कि अपने साथ कोई आनंद नहीं है, स्वयं के साथ कोई आनंद नहीं है। आदमी जितना दुखी अपने साथ हो जाता है, उतना दुखी अपने दुश्मन के साथ भी नहीं होता। आदमी जितना अपने से ऊब जाता है, उतना कितना ही बोरिंग आदमी हो, उसके साथ भी नहीं ऊबता। आदमी अपने साथ बिलकुल राजी नहीं है, इसका अर्थ क्या है ? कोई आदमी खुद को कम्पैनियन नहीं बनाना चाहता - यह बड़े मजे की बात है - और जब कोई दूसरा उसे कम्पैनियन नहीं बनाना चाहता, तो बड़ा दुखी होता है। हालांकि वह खुद रिजेक्ट कर चुका है अपने को ! वह खुद कह चुका है कि अपने से दोस्ती नहीं चलेगी ! आप घंटे भर भी अपने साथ अकेले में बैठने को राजी नहीं होते। अगर दिन भर अकेले में बैठना पड़े, तो घबड़ा जाते हैं कि आत्महत्या कर लेंगे, कि क्या कर लेंगे। अगर वर्ष भर अकेला रहना पड़े तो क्या जी सकेंगे ? अपने साथ जीना बड़ा कठिन है। क्योंकि अपने साथ केवल वही जी सकता है, जो भीतर आनंद को उपलब्ध है। दूसरे के साथ जीने की आकांक्षा उसी की है, जो भीतर दुख से भरा है। और मैंने कहा कि हिंसा अंतर- दुख है, इसलिए हिंसक - चित्त सदा दूसरे को खोजता है; कभी मित्र के नाम से खोजता है, कभी शत्रु के नाम से खोजता है; लेकिन दूसरे को खोजता है। और इसमें भी बहुत देर नहीं लगती कि जो मित्र था वह शत्रु बन जाता है और जो शत्रु था वह मित्र बन जाता है। असल में किसी को शत्रु बनाना हो, तो उसे भी पहले मित्र तो बनाना ही पड़ता है। मित्र बनाये बिना तो शत्रु बनाना बहुत मुश्किल है - सिर्फ संबंधियों को छोड़कर। क्योंकि संबंधी पहले से ही शत्रु होते हैं ! बाकी तो किसी को भी शत्रु बनाना हो, तो पहले मित्र बनाना पड़ता है। आदमी दूसरे को खोज रहा है क्योंकि अपने से बचना चाहता है। इसलिए मैं कहता हूं, दूसरा खाई है। जो अपने से बचना चाहता है, वह किसी ऊंची यात्रा पर नहीं निकल सकेगा; क्योंकि जो अपने तक ही पहुंचने को राजी नहीं है, वह किस परमात्मा तक पहुंचने की हिम्मत जुटा सकता है ? जो अपने ही शिखर छूने को राजी नहीं है, वह किस अस्तित्व के ऊंचे शिखरों की यात्रा पर निकल सकता है ? इसलिए हम दूसरे को खोज रहे हैं । और जब भी हम दूसरे को खोज रहे हैं, तब हमसे हिंसा होगी ही । एक तो उस आदमी का भी साथ है जो अपने साथ जीता है। वह भी दूसरों के साथ जी सकता है, लेकिन दूसरों की उसे जरूरत नहीं है, दूसरे उसकी नेसेसिटी नहीं हैं, दूसरे उसकी अनिवार्यता नहीं हैं। दूसरे उसके पास हो सकते हैं, उसके आनंद में भागीदार बन सकते हैं, लेकिन वह दूसरों पर निर्भर नहीं है, वह कोई डिपेंडेंट नहीं है। दूसरे नहीं होंगे, तो भी वह इतने ही आनंद में होगा । अगर बुद्ध के पास कोई भी न जाये, तो बुद्ध के आनंद में कोई भी अंतर नहीं पड़ेगा। बुद्ध के पास लाखों लोग जायें, तो भी कोई अंतर नहीं पड़ेगा। लेकिन हमसे एक आदमी अहिंसा (प्रश्नोत्तर) Jain Education International For Personal & Private Use Only 125 www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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